शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

आग


आग का पेट बड़ा है!
आग को चाहिए हर लहजा चबाने के लिए
खुश्क करारे पत्ते,
आग कर लेती है तिनकों से गुजारा लेकिन
आशियानों को निगलती है निवालों की तरह
आग को सब्ज हरी टहनियां अच्छी नहीं लगतीं
ढूंढती है कि कहीं सूखे हुए जिस्म मिलें!
उसको जंगल की हवा रास आती है फिर भी
अब गरीबों की कई बस्तियों पर देखा है हमला करते,
आग अब मंदिरों-मस्जिद की गजा खाती है!
लोगों के हाथों में अब आग नहीं-
आग के हाथों में कुछ लोग हैं अब

गुलजार

शनिवार, 19 दिसंबर 2009

क्या हम आजाद हैं?

वक्त ऐसा आ गया है
आलम ऐसा छा गया है
झाँक कर अपने गिरेबान में

आओ ख़ुद से पूछ लें
क्या हम आजाद हैं?

क्या है जिंदगी में अमन चैन?
क्यूँ दो शाम की रोटी के लिए तरसे नैन?
क्या अपना हक मिलता है यहाँ?
लोकतंत्र चलता है जहाँ?

आओ ख़ुद से पूछ लें
क्या हम आजाद हैं?

भुखमरी बेरोज़गारी और अन्याय से क्या अछूते हैं हम?
क्या ठोस कदम उठाये सरकार ने जिससे हो हमारी परेशानी कम?
काम होता है यहाँ और योजनायें बनती भी हैं
पर क्या कभी सोचा है वो क्यूँ लागू होती नहीं?

आओ ख़ुद से पूछ लें
क्या हम आजाद हैं?

क्यूँ वो सुनकर भी हमारी बात करते अनसुनी?
क्यूँ हमारा दर्द उनको दर्द देता है नहीं?
क्यूँ हमारे आसुओं का होता कोई असर नहीं?

आओ ख़ुद से पूछ लें
क्या हम आजाद हैं?

वक्त ऐसा आ गया है
आलम ऐसा छा गया है
झाँक कर अपने गिरेबान में

आओ ख़ुद से पूछ लें
क्या हम आजाद हैं?

हर एक इंसान में है ज़ोर कर लो गौर
अब करे न राज हमपे कोई और
अपने हाथों में ले लो सत्ता की डोर

और हर तरफ़ हो यही शोर
"हाँ हम आजाद हैं.....हाँ हम आजाद हैं...."

गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

लोकेशन

























अभी कल तलक
कहते थे-
नहीं होने देंगे अन्याय
लडेंगे अत्याचारी से
झोपड़ी और गगन चूमती
एसीदार इमारतों के बीच
कर देंगे खत्म फासला
आज वह भी,
उन्हीं लोगों की जमात में
हो गए हैं शामिल
सबसे आगे चल रहे हैं उठाकर
उनका झंड़ा
उसी एसीदार इमारत पर
ले लिया है फ्लैट
बालकनी में खडे़ होकर
देखता है झोपड़ी की तरफ
जहां से उठकर आया है
अब खटक रही है उसे
अपने बगल में
उस झोपड़ी की लोकेशन।

भागीरथ




आकस्मिक मुलाकात


हम मिले-
बड़े सलीके और शिष्टाचार के साथ।
हमने कहा- कितनी खुशी हुई
आपको इतने सालों बाद देखकर !
पर हमारे भीतर थककर सो गया था बहुत-कुछ।
घास खा रहा था शेर,
बाज ने अपनी उड़ान छोड़ दी थी।
मछलियाँ डूब गई थीं और भेड़िए पिंजरों में बन्द थे।
हमारे साँप अपनी केंचुल बदल चुके थे।
मोरों के पंख झड़ गए थे।
उल्लू तक नहीं उड़ते थे हमारी रातों में।
हमारे वाक्य टूट कर ख़ामोश हो गए।
असहाय-सी मुस्कान में खो गयी
हमारी इंसानियत
जो नहीं जानती कि आगे क्या कहे
विस्साव शिम्बोर्स्का
(बीतती सदी में )
अनुवाद - विजय अहलूवालिया

घुटनों के बल निहार रहा हूँ धरती को

इंसानों के बीच प्यार करता हूँ इंसानियत को
मुझे भाती है सक्रियता
मुझे रुचते हैं विचार
प्यार करता हूँ मैं अपने संघर्षो को
मेरे संघर्षो के बीच इंसान हो तुम मेरी प्रिया
मैं तुम्हे प्यार करता हूँ!
नाज़िम हिक़मत

बुधवार, 16 दिसंबर 2009

आदत

अब नहीं वो गुस्सा करते
भाड़ा बढ़ने पर बस का
आटा-दाल-चीनी-सब्जी
महंगी होने पर
नहीं शिकन आती माथे पर
अब वो आदत डाल रहे हैं
पैदल चलने की
हवा खाकर जिंदा
रहने की..

बुधवार, 9 दिसंबर 2009

कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की

कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की

बहुत खूबसूरत मगर सांवली सी

मुझे अपने ख़्वाबों की बाहों में पाकर

कभी नींद में मुस्कुराती तो होगी

उसी नींद में कसमसा कसमसाकर

सराहने से तकिये गिराती तो होगी

वही ख्वाब दिन के मुंडेरों पे आके
उसे मन ही मन में लुभाते तो होंगे
कई साज़ सीने की खामोशियों में
मेरी याद में झनझनाते तो होंगे
वो बेसाख्ता धीमे धीमे सुरों में
मेरी धुन में कुछ गुनगुनाती तो होगी
चलो ख़त लिखें जी में आता तो होगा
मगर उंगलियाँ कंप-कंपाती तो होंगी
कलम हाथ से छूट जाता तो होगा
उमंगें कलम फिर उठाती तो होंगी

मेरा नाम अपनी किताबों पे लिखकर
वो दांतों में उंगली दबाती तो होगी
जुबां से कभी उफ़ निकलती तो होगी
बदन धीमे धीमे सुलगता तो होगा
कहीं के कहीं पाँव पड़ते तो होंगे
दुपट्टा ज़मीन पर लटकता तो होगा
कभी सुबह को शाम कहती तो होगी
कभी रात को दिन बताती तो होगी

कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की
बहुत खूबसूरत मगर सांवली सी

रविवार, 6 दिसंबर 2009

कश लगा

ज़िन्दगी ऐ कश लगा
हसरतों की राख़ उड़ा

ये जहान फ़ानी है, बुलबुला है, पानी है
बुलबुलों पे रुकना क्या, पानियों पे बहता जा बहता जा
कश लगा, कश लगा

जलती है तनहाईयाँ तापी हैं रात रात जाग जाग के
उड़ती हैं चिंगारियाँ, गुच्छे हैं लाल लाल गीली आग के

खिलती है जैसे जलते जुगनू हों बेरियों में
आँखें लगी हो जैसे उपलों की ढेरियों में

दो दिन का आग है ये, सारे जहाँ का धुंआँ
दो दिन की ज़िन्दगी में, दोनो जहाँ का धुआँ
कश लगा, कश लगा

इश्तहार

इसे पढ़ो
इसे पढ़ने में कोई डर या ख़तरा नहीं है
यह तो एक सरकारी इश्तहार है
और आजकल सरकारी इश्तहार
दीवार पर चिपका कोई देवता या अवतार है
इसे पूजो !
इसमें कुछ संदेश हैं
सूचनाएँ हैं
कुछ आँकड़े हैं
योजनाएँ हैं
कुछ वायदे हैं
घोषणाएँ हैं
इस देववाणी को पढ़ो
और दूसरों को पढ़कर सुनाओ—
कि देश कितनी तरक्की कर रहा है
कि दुनिया में हमारा रुतबा बढ़ रहा है
चीज़ों की कीमतें गिर रही हैं
और हमें विश्व बैंक से नया क़र्ज़ा मिल रहा है
इस क़र्ज़ से कई कारखाने लगाए जाएंगे
कारखानों से कई धंधे चलाए जाएंगे
उन धंधों से लाखों का लाभ होगा
उस लाभ से और कारख़ाने लगाए जाएंगे
उन कारख़ानों से और उद्योग चलाए जाएंगे
उस लाभ से और कारख़ाने लगाए जाएंगे
इस तरह लाभ—दर—लाभ के बाद
जो शुभ लाभ होगा
उससे ग़रीबों के लिए घर बनाए जाएगे
उन पर उन्हीं की शान के झंडे लहराए जाएंगे
सभी ग़रीब एक आवाज़ से बोलें—
‘जय हिंद !’
ये हिंद साहब !
मगर इस देश का ग़रीब आदमी भी अजब तमाशा है
अपनी ही शान का इश्तहार पढ़ने से डरता है
और निरंतर निरक्षर होने का नाटक करता है
हाँ साहब, मैं ठीक कहता हूँ
अगर देश को ठीक दिशा में मोड़ना है तो
ग़रीब आदमी की इस नाटकीय मुद्रा को तोड़ना है
हमें उसे ज़बर्दस्ती इस दीवार के पास लाना है
और इस इश्तहार को पढ़वाना है।

कविता आदमी का निजी मामला नहीं है

कविता आदमी का निजी मामला नहीं है

एक दूसरे तक पहुंचने का पुल है
अब वही आदमी पुल बनाएगा जो पुल पर चलते आदमी की

सुरक्षा कर सकेगा।

शुक्रवार, 28 अगस्त 2009

आज सड़कों पर लिखें हैं सैंकड़ों नारे न देख

आज सड़कों पर लिखें हैं सैंकड़ों नारे न देख,
घर अँधेरा देख तू, आकाश के तारे न देख।

एक दरिया है यहाँ दूर तक फैला हुआ,
आज अपने बाजुओं को देख, पतवारें न देख।

अब यकीनन ठोस है धरती हकीकत की तरह,
यह हकीकत देख लेकिन खौफ के मारे न देख।

वे सहारे भी नहीं अब, जंग लड़नी है तुझे,
कट चुके जो हाथ, उन हाथों में तलवारें न देख।

दिल को बहला ले, इजाजत है, मगर इतना न उड़,
रोज सपने देख, लेकिन इस कदर प्यारे न देख।

ये धुँधलका है नजर का, तू महज मायूस है,
रोजनों को देख, दीवारों में दीवारें न देख।

राख, कितनी राख है, चारों तरफ बिखरी हुई,
राख में चिनगारियाँ ही देख, अंगारे न देख।
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दुष्यंत कुमार

गुरुवार, 27 अगस्त 2009

मैं सजदे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा


ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा,
मैं सजदे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा।

यहाँ तक आते आते सूख जाती हैं कई नदियाँ,
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा।

ग़ज़ब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते,
वो सब-के-सब परीशाँ हैं वहाँ पर क्या हुआ होगा।

तुम्हारे शहर में ये शोर सुन-सुनकर तो लगता है,
कि इन्सानों के जंगल में कोई हाँका हुआ होगा।

कई फ़ाके बिताकर मर गया जो उसके बारे में,
वो सब कहते हैं अब, ऐसा नहीं, ऐसा हुआ होगा।

यहाँ तो सिर्फ गूँगे और बहरे लोग बसते हैं,
खुदा जाने यहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा।

चलो, अब यादगारों की अँधेरी कोठरी खोलें,
कम-अज़-कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा।
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दुष्यंत कुमार

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

अचानक

अच्छा खासा काम में
लगा आदमी
आ सकता है
सड़क पर
अचानक
कभी भी कह सकते हैं
बॉस-
देख लो अपना ठिकाना
अब तुम्हारी नही जरुरत

अचानक रसोई में
कमी हो सकती है
आटा दाल चावल चीनी की
बंद हो सकता है अचानक
बच्चे को आनेवाला दूध
और उसका प्राइवेट स्कूल में
पढ़ना
मकान मालिक
करवा सकता है
अचानक
कमरा खाली

अभी अभी
थोड़ा ढंग से जीने की
सर उठाती हसरतें
गिर सकती हैं
अचानक
औंधे मुंह

..क्योंकि अच्छा खासा काम में
लगा आदमी
आ सकता है सड़क पर
अचानक

भागीरथ

गुरुवार, 30 जुलाई 2009

शहर

मुस्कुराहटें उनकी,

गुमराह करती है।

खुश है, या खुश,

रहने की चाह करती है?


कुछ आँखों में बंद,

गुम लम्हों का पिटारा है।

नन्ही की किलकारी,

बिखरी यादों का नज़ारा है।


गुमसुम से चेहरों पर,

ग़मों की लकीरें हैं।

कभी मिटती हैं,

कभी मिट जाने की राह तकती हैं।


अपनी मुट्ठी में लिए,

तकदीरों का सवेरा है ।

मुकद्दर के साहिल पर,

अरमानो का रेला है।


हर शख्स यहाँ,

तन्हाई से लड़ता है।

अकेला है मगर,

अकेलेपन से डरता है।


जादू की इस नगरी में,

ख्वाबों का ताना-बना है।

कितनी ही उम्मीदों का,

बनता यहाँ फ़साना है।


हर पल हर दम,

इक सच्चाई से लड़ते हैं।

जीने की कोशिश में,

हर दिन थोड़ा मरते हैं।


इस ब्लॉग पर अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का अवसर प्रदान करने के लिए कवियाना का बहुत- बहुत धन्यवाद्। यहाँ प्रस्तुत सभी रचनायें बहुत ही बेहतेरीन हैं। इनके बीच मेरी एक छोटी सी रचना प्रस्तुत है । मेट्रो में सफर करते समय अक्सर लोगों को देखती हूँ। वहीँ से इन भावों ने जन्म लिया। एक कोशिश है, वैसे व्यक्ति हर दिन कुछ नया सीखता है। आपके सुझाव व टिप्पणी आमंत्रित हैं।


सोमवार, 27 जुलाई 2009

एक झीना-सा परदा था

एक झीना-सा परदा था, परदा उठा
सामने थी दरख्तों की लहराती हरियालियां
झील में चांद कश्ती चलाता हुआ
और खुशबू की बांहों में लिपटे हुए फूल ही फूल थे

फिर तो सलमों-सितारों की साड़ी पहन
गोरी परियां कहीं से उतरने लगीं
उनकी पाजेब झन-झन झनकने लगी
हम बहकने लगे

अपनी नज़रें नज़ारों में खोने लगीं
चांदनी उंगलियों के पोरों पे खुलने लगी
उनके होठ, अपने होठों में घुलने लगे
और पाजेब झन-झन झनकती रही
हम पीते रहे और बहकते रहे
जब तलक हल तरफ बेखुदी छा गई

हम न थे, तुम न थे
एक नग़मा था पहलू में बजता हुआ
एक दरिया था सहरा में उमड़ा हुआ
बेखुदी थी कि अपने में डूबी हुई

एक परदा था झीना-सा, परदा गिरा
और आंखें खुलीं...
खुद के सूखे हलक में कसक-सी उठी
प्यास ज़ोरों से महसूस होने लगी।

गोरख पाण्डेय

उनका डर

वे डरते हैं

किस चीज़ से डरते हैं वे

तमाम धन-दौलत

गोला-बारूद पुलिस-फ़ौज के बावजूद ?

वे डरते हैं

कि एक दिन

निहत्थे और ग़रीब लोग

उनसे डरना

बंद कर देंगे ।

गोरख पाण्डेय

कुर्सीनामा

1

जब तक वह ज़मीन पर था

कुर्सी बुरी थी

जा बैठा जब कुर्सी पर वह

ज़मीन बुरी हो गई ।

2

उसकी नज़र कुर्सी पर लगी थी

कुर्सी लग गयी थी

उसकी नज़र को

उसको नज़रबन्द करती है कुर्सी

जो औरों को

नज़रबन्द करता है ।

3

महज ढाँचा नहीं है

लोहे या काठ का

कद है कुर्सी

कुर्सी के मुताबिक़ वह

बड़ा है छोटा है

स्वाधीन है या अधीन है

ख़ुश है या ग़मगीन है

कुर्सी में जज्ब होता जाता है

एक अदद आदमी ।

4

फ़ाइलें दबी रहती हैं

न्याय टाला जाता है

भूखों तक रोटी नहीं पहुँच पाती

नहीं मरीज़ों तक दवा

जिसने कोई ज़ुर्म नहीं किया

उसे फाँसी दे दी जाती है

इस बीच

कुर्सी ही है

जो घूस और प्रजातन्त्र का

हिसाब रखती है ।

5

कुर्सी ख़तरे में है तो प्रजातन्त्र ख़तरे में है

कुर्सी ख़तरे में है तो देश ख़तरे में है

कुर्सी ख़तरे में है तु दुनिया ख़तरे में है

कुर्सी न बचे

तो भाड़ में जायें प्रजातन्त्र

देश और दुनिया ।

6

ख़ून के समन्दर पर सिक्के रखे हैं

सिक्कों पर रखी है कुर्सी

कुर्सी पर रखा हुआ

तानाशाह

एक बार फिर

क़त्ले-आम का आदेश देता है ।

7

अविचल रहती है कुर्सी

माँगों और शिकायतों के संसार में

आहों और आँसुओं के

संसार में अविचल रहती है कुर्सी

पायों में आग

लगने

तक ।

8

मदहोश लुढ़ककर गिरता है वह

नाली में आँख खुलती है

जब नशे की तरह

कुर्सी उतर जाती है ।

9

कुर्सी की महिमा

बखानने का

यह एक थोथा प्रयास है

चिपकने वालों से पूछिये

कुर्सी भूगोल है

कुर्सी इतिहास है ।

गोरख पाण्डेय

समाजवाद

समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई

समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई

हाथी से आई

घोड़ा से आई

अँगरेजी बाजा बजाई, समाजवाद...

नोटवा से आई

बोटवा से आई

बिड़ला के घर में समाई, समाजवाद...

गाँधी से आई

आँधी से आई

टुटही मड़इयो उड़ाई, समाजवाद...

काँगरेस से आई

जनता से आई

झंडा से बदली हो आई, समाजवाद...

डालर से आई

रूबल से आई

देसवा के बान्हे धराई, समाजवाद...

वादा से आई

लबादा से आई

जनता के कुरसी बनाई, समाजवाद...

लाठी से आई

गोली से आई

लेकिन अंहिसा कहाई, समाजवाद...

महंगी ले आई

गरीबी ले आई

केतनो मजूरा कमाई, समाजवाद...

छोटका का छोटहन

बड़का का बड़हन

बखरा बराबर लगाई, समाजवाद...

परसों ले आई

बरसों ले आई

हरदम अकासे तकाई, समाजवाद...

धीरे-धीरे आई

चुपे-चुपे आई

अँखियन पर परदा लगाई

समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई ।

गोरख पाण्डेय

एक कम है

अब एक कम है तो एक की आवाज कम है

एक का अस्तित्व एक का प्रकाश

एक का विरोध

एक का उठा हुआ हाथ कम है

उसके मौसमों के वसंत कम हैं


एक रंग के कम होने से

अधूरी रह जाती है एक तस्वीर

एक तारा टूटने से भी वीरान होता है आकाश

एक फूल के कम होने से फैलता है उजाड़ सपनों के बागीचे में


एक के कम होने से कई चीजों पर फ़र्क पड़ता है एक साथ

उसके होने से हो सकनेवाली हजार बातें

यकायक हो जाती हैं कम

और जो चीजें पहले से ही कम हों

हादसा है उनमें से एक का भी कम हो जाना


मैं इस एक के लिए

मैं इस एक के विश्वास से

लड़ता हूं हजारों से

खुश रह सकता हूं कठिन दुःखों के बीच भी


मैं इस एक की परवाह करता हूं ।

कुमार अंबुज

कहीं भी कोई कस्बा

अभी वसंत नहीं आया है

पेड़ों पर डोलते हैं पुराने पत्ते

लगातार उड़ती धूल वहाँ कुछ आराम फरमाती है


एक लम्बी दुबली सड़क जिसके किनारे

जब-तब जम्हाइयाँ लेती दुकानें

यह बाज़ार है

आगे दो चौराहे

एक पर मूर्ति के लिए विवाद हुआ था

दूसरी किसी योद्धा की है

नहीं डाली जा सकती जिस पर टेढ़ी निगाह


नाई की दुकान पर चौदह घंटे बजता है रेडियो

पोस्ट-मास्टर और बैंक-मैनेजर के घर का पता चलता-फिरता आदमी भी बता देगा

उधर पेशाब से गलती हुई लोकप्रिय दीवार

जिसके पार खंडहर, गुम्बद और मीनारें

ए.टी.एम. ने मंदिर के करीब बढ़ा दी है रौनक


आठ-दस ऑटो हैं रिेक्शेवालों को लतियाते

तांगेवालों की यूनियन फेल हुई

ट्रैक्टरों, लारियों से बचकर पैदल गुज़रते हैं आदमी खाँसते-खँखारते

अभी-अभी ख़तम हुए हैं चुनाव

दीवारों पर लिखत और फटे पोस्टर बाक़ी


गठित हुई हैं तीन नई धार्मिक सेनाएँ

जिनकी धमक है बेरोज़गार लड़कों में


चिप्स, नमकीन और शीतल पेय की बहार है

पुस्तकालय तोड़कर निकाली हैं तीन दुकानें

अस्पताल और थाने में पुरानी दृश्यावलियाँ हैं

रात के ग्यारह बजने को हैं

आखिरी बस आ चुकी

चाय मिल सकती है टाकीज़ के पास


पुराना तालाब, बस स्टैंड, कान्वेंट स्कूल, नया पंचायत भवन,

एक किलोमीटर दूर ढाबा

और हनुमान जी की टेकरी दर्शनीय स्थल हैं।

कुमार अंबुज

सड़क पार करने वालों का गीत

महामान्य महाराजाधिराजाओं के
निकल जाएँ वाहन
आयातित राजहंस
कैडलक, शाफ़र, टोयेटा
बसें और बसें
टैक्सियाँ और स्कूटर
महकते दुपट्टे
टाइयाँ और सूट

निकल जाएँ ये प्रतियोगी
तब हम पार करें सड़क

मन्त्रियों, तस्करों
डाकुओं और अफ़सरों
की निकल जाएँ सवारियाँ
इनके गरुड़
इनके नन्दी
इनके मयूर
इनके सिंह

गुज़र जाएँ तो सड़क पार करें

यह महानगर है विकास का
झकाझक नर्क
यह पूरा हो जाए तो हम
सड़क पार करें
ये बढ़ लें तो हम बढ़ें

ये रेला आदिम प्रवाह
ये दौड़ते शिकारी थमें
तो हम गुज़रें।

इब्बार रब्बी


रविवार, 26 जुलाई 2009

वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है

वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है

इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है

कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है

रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बताएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है

अदम गोंडवी

काजू भुने प्लेट में विस्की गिलास में

काजू भुने प्लेट में विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में

पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में

आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में

पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नखास में

जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में

अदम गोंडवी

वो सुबह कभी तो आएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

इन काली सदियों के सर से जब रात का आंचल ढलकेगा
जब दुख के बादल पिघलेंगे जब सुख का सागर झलकेगा
जब अम्बर झूम के नाचेगा जब धरती नगमे गाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

जिस सुबह की ख़ातिर जुग जुग से हम सब मर मर के जीते हैं
जिस सुबह के अमृत की धुन में हम ज़हर के प्याले पीते हैं
इन भूकी प्यासी रूहों पर इक दिन तो करम फ़रमाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

माना कि अभी तेरे मेरे अरमानों की क़ीमत कुछ भी नहीं
मिट्टी का भी है कुछ मोल मगर इन्सानों की क़ीमत कुछ भी नहीं
इन्सानों की इज्जत जब झूठे सिक्कों में न तोली जाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

दौलत के लिए जब औरत की इस्मत को ना बेचा जाएगा
चाहत को ना कुचला जाएगा, इज्जत को न बेचा जाएगा
अपनी काली करतूतों पर जब ये दुनिया शर्माएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

बीतेंगे कभी तो दिन आख़िर ये भूक के और बेकारी के
टूटेंगे कभी तो बुत आख़िर दौलत की इजारादारी के
जब एक अनोखी दुनिया की बुनियाद उठाई जाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

मजबूर बुढ़ापा जब सूनी राहों की धूल न फांकेगा
मासूम लड़कपन जब गंदी गलियों में भीक न मांगेगा
हक़ मांगने वालों को जिस दिन सुली न दिखाई जाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

फ़आक़ों की चिताओ पर जिस दिन इन्सां न जलाए जाएंगे
सीने के दहकते दोज़ख में अरमां न जलाए जाएंगे
ये नरक से भी गंदी दुनिया, जब स्वर्ग बनाई जाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

जिस सुबह की ख़ातिर जुग जुग से हम सब मर मर के जीते हैं
जिस सुबह के अमृत की धुन में हम ज़हर के प्याले पीते हैं
वो सुबह न आए आज मगर, वो सुबह कभी तो आएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

साहिर लुधियानवी

ख़ून अपना हो या पराया हो

ख़ून अपना हो या पराया हो

नस्ले आदम का ख़ून है आख़िर

जंग मग़रिब में हो कि मशरिक में

अमने आलम का ख़ून है आख़िर

बम घरों पर गिरें कि सरहद पर

रूहे- तामीर ज़ख़्म खाती है

खेत अपने जलें या औरों के

ज़ीस्त फ़ाक़ों से तिलमिलाती है


टैंक आगे बढें कि पीछे हटें

कोख धरती की बाँझ होती है

फ़तह का जश्न हो कि हार का सोग

जिंदगी मय्यतों पे रोती है


इसलिए ऐ शरीफ इंसानों

जंग टलती रहे तो बेहतर है

आप और हम सभी के आँगन में

शमा जलती रहे तो बेहतर है।

साहिर लुधियानवी

शनिवार, 25 जुलाई 2009

मापदण्ड बदलो

मेरी प्रगति या अगति का
यह मापदण्ड बदलो तुम,
जुए के पत्ते सा
मैं अभी अनिश्चित हूँ ।
मुझ पर हर ओर से चोटें पड़ रही हैं,
कोपलें उग रही हैं,
पत्तियाँ झड़ रही हैं,
मैं नया बनने के लिए खराद पर चढ़ रहा हूँ,
लड़ता हुआ
नयी राह गढ़ता हुआ आगे बढ़ रहा हूँ ।

अगर इस लड़ाई में मेरी साँसें उखड़ गईं,
मेरे बाज़ू टूट गए,
मेरे चरणों में आँधियों के समूह ठहर गए,
मेरे अधरों पर तरंगाकुल संगीत जम गया,
या मेरे माथे पर शर्म की लकीरें खिंच गईं,
तो मुझे पराजित मत मानना,
समझना –
तब और भी बड़े पैमाने पर
मेरे हृदय में असन्तोष उबल रहा होगा,
मेरी उम्मीदों के सैनिकों की पराजित पंक्तियाँ
एक बार और
शक्ति आज़माने को
धूल में खो जाने या कुछ हो जाने को
मचल रही होंगी ।
एक और अवसर की प्रतीक्षा में
मन की क़न्दीलें जल रही होंगी ।

ये जो फफोले तलुओं मे दीख रहे हैं
ये मुझको उकसाते हैं ।
पिण्डलियों की उभरी हुई नसें
मुझ पर व्यंग्य करती हैं ।
मुँह पर पड़ी हुई यौवन की झुर्रियाँ
क़सम देती हैं ।
कुछ हो अब, तय है –
मुझको आशंकाओं पर क़ाबू पाना है,
पत्थरों के सीने में
प्रतिध्वनि जगाते हुए
परिचित उन राहों में एक बार
विजय-गीत गाते हुए जाना है –
जिनमें मैं हार चुका हूँ ।

मेरी प्रगति या अगति का
यह मापदण्ड बदलो तुम
मैं अभी अनिश्चित हूँ ।

- दुष्यन्त कुमार

शनिवार, 18 जुलाई 2009

लोहे का स्वाद

शब्द किस तरह
कविता बनते हैं
इसे देखो
अक्षरों के बीच गिरे हुए
आदमी को पढ़ो
क्या तुमने सुना कि यह
लोहे की आवाज़ है या
मिट्टी में गिरे हुए खून
का रंग।

लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
घोडे से पूछो
जिसके मुंह में लगाम है।

धूमिल

रोटी और संसद

एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूं--
'यह तीसरा आदमी कौन है ?'
मेरे देश की संसद मौन है।

धूमिल

हर तरफ धुआं है

हर तरफ धुआं है
हर तरफ कुहासा है
जो दांतों और दलदलों का दलाल है
वही देशभक्त है

अंधकार में सुरक्षित होने का नाम है-
तटस्थता। यहां
कायरता के चेहरे पर
सबसे ज्यादा रक्त है।
जिसके पास थाली है
हर भूखा आदमी
उसके लिए, सबसे भद्दी
गाली है

हर तरफ कुआं है
हर तरफ खाईं है
यहां, सिर्फ, वह आदमी, देश के करीब है
जो या तो मूर्ख है
या फिर गरीब है

धूमिल

पुराना सवाल

पहले खेत बिके
फिर घर फिर जेवर
फिर बर्तन
और वो सब किया जो ग़रीब और अभागे
तब से करते आ रहे हैं जब से यह दुनिया बनी
पत्नी ने जूठा धोया
बेटों ने दुकानों पर ख़रीदारों का हुक्म बजाया
बेटियाँ रात में देर से लौटीं
और पैठान मुझे छेंकते रहे सड़कों पर

इस तरह एक-एक कर घर उजड़े गाँव उजड़े
और यह नगर महानगर बना
पर कोई नहीं बोलता ऎसा हुआ क्यों
अब कोई नहीं पूछता यह दुनिया ऎसी क्यों है
बेबस कंगालों और बर्बर अमीरों में बँटी हुई

नहीं मैं हारा नहीं हूँ
मैं भी वो सब करूंगा
हम सब वो सब करेंगे जो हम जैसे लोग तब से
करते आ रहे हैं जब से यह दुनिया बनी
जो अभी-अभी बोलिविया कोलम्बिया ने किया
जो अभी-अभी नेपाल के बाँकुड़ों ने किया
और मैं बार-बार पूछता रहूंगा वही एक पुराना सवाल-
यह दुनिया ऎसी क्यों है?

अरुण कमल

जिसने ख़ून होते देखा

नहीं, मैंने कुछ नहीं देखा
मैं अन्दर थी। बेसन घोल रही थी
नहीं मैंने किसी को...

समीर को बुला देंगी
समीर, मैंने पुकारा
और वह दौड़ता हुआ आया जैसे बीच में खेल छोड़
कुछ हाँफता
नहीं, नहीं, मैं चुप रहूंगी, मेरे भी बच्चे हैं, घर है

वह बहुत छोटा था अभी
एकदम शहतूत जब सोता
बहुत कोमल शिरीष के फूल-सा
अभी भी उसके मु~म्ह से दूध की गन्ध आती थी
ओह, मैंने क्यों पुकारा
क्यों मेरे ही मार्फ़त यह मौत, मैं ही क्यों कसाई का ठीहा, नहीं, नहीं, मैं कुछ नहीं जानती, मैंने कुछ नहिं देखा
मैंने किसी को...

वे दो थे। एक तो वही...। उन्होंने मुझे बहन जी कहा या आंटी
रोशनी भी थी और बहुत अंधेरा भी, बहुत फतिंगे थे बल्ब पर
मैं पीछे मुड़ रही थी
कि अचानक
समीर, मैं दौड़ी, समीर
दूध और ख़ून
ख़ून
नहीं नहीं नहीं कुछ नहीं

मैं सब जानती हूँ
मैं उन सब को जानती हूँ
जो धांगते गए हैं ख़ून
मैं एक-एक जूते का तल्ला पहचानती हूँ
धीरे-धीरे वो बन्दूक घूम रही है मेरी तरफ़

चारों तरफ़

अरुण कमल

वह तोड़ती पत्थर

देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर
वह तोड़ती पत्थर.

कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार,
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रात मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार :-
सामने तरु मालिका अट्टालिका, प्राकर.

चढ़ रही धूप;
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू,
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गयीं,
प्राय: हुई दुपहर :-
वह तोड़ती पत्थर.

देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्न्तार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सुना सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी झंकार
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
`मैं तोड़ती पत्थर!'

-निराला

सोमवार, 13 जुलाई 2009

सुभद्रा कुमारी चौहान की कालजयी कविता - झाँसी की रानी

झाँसी की रानी
सुभद्रा कुमारी चौहान

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सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटि तानी थी,
बूढ़े भारत में भी आई फिर से नई जवानी थी,
गुमी हुई आजादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी,
चमक उठी सन् सत्तावन में
वह तलवार पुरानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।
कानपुर के नाना की मुँहबोल बहन ‘छबीली’ थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के संग पढ़ती थी वह, नाना के संग खेली थी,
बरछी, ढाल, कृपाल, कटारी उसकी यही सहेली थी,
वीर शिवाली की गाथाएँ
उसको याद जबानी थीं।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।
लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता का अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध, व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना, ये थे उसके प्रिय खिलवार,
महाराष्ट्र-कुल-देवी उसकी
भी आराध्य भवानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।
हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,
सुभट बुंदेलों की विरुदावलि-सी वह आई झाँसी में,
चित्रा ने अर्जुन को पाया,
शिव से मिली भवानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।
उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजयाली छाई,
किन्तु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाईं,
रानी विधवा हुई हाय! विधि को भी नहीं दया आई,
निःसंतान मरे राजा जी
रानी शोक-समानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।
बुझा दीप झाँसी का तब डलहौजी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया,
अश्रुपूर्ण रानी ने देखा
झाँसी हुई बिरानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।
अनुनय-विनय नहीं सुनता है, विकट फिरंगी की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौजी ने पैर पसारे अब तो पलट गई काया,
राजाओं नब्वाबों के भी उसने पैरों को ठुकराया,
रानी दासी बनी यह
दासी अब महारानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।
छिनी राजधानी देहली की, लिया लखनऊ बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठूर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात,
जबकि सिंध, पंजाब, ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात,
बंगाले, मद्रास आदि की
भी तो यही कहानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।
रानी रोई रनिवासों में, बेगम ग़म से थी बेज़ार,
उनके गहने-कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सरेआम नीलाम छापते थे अंग्रेजों के अखबार,
‘नागपूर के जेवर ले लो, लखनऊ के लो नौलख हार’,
यों परदे की इज्जत पर-
देशी के हाथ बिकानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।
कुटिया में थी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था, अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुधुंपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रणचंडी का कर दिया प्रकट आवहान,
हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो
सोई ज्योति जगानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।
महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरमन से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थीं,
मेरठ, कानपुर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,
जबलपुर, कोल्हापुर में भी
कुछ हलचल उकसानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।
इस स्वतंत्रता-महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना, धुंधुंपंत, ताँतिया, चतुर अजीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास-गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम,
लेकिन आज जुर्म कहलाती
उनकी जो कुरबानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।
इनकी गाथा छोड़ चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाॅकर आ पहुँचा, आगे बढ़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुआ द्वंद्व असमानों में,
जख्मी होकर वाकर भागा
उसे अजब हैरानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।
रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थककर गिरा भूमि पर, गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना-तट पर अंग्रेजों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार,
अंग्रेजों के मित्र सिंधिया
ने छोड़ी रजधानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।
विजय मिली, पर अंग्रेजों की फिर सेना घिर आई थी,
अब के जनरल स्मिथ सन्मुख था, उसने मुँह की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आईं थीं,
युद्ध-क्षेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी,
पर, पीछे ह्यूरोज आ गया
हाय! घिरी अब रानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।
तो भी रानी मार-काटकर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था यह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार,
रानी एक शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार पर वार,
घायल होकर गिरी सिंहनी
उसे वीर-गति पानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।
रानी गई सिधार, चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेईस की, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आई बन स्वतंत्रता नारी थी,
दिखा गई पथ, सिखा गई
हमको जो सीख सिखानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।
जाओ रानी याद रखेंगे हम कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनाशी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी,
तेरा स्मारक तू ही होगी
तू खुद अमिट निशानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।

शुक्रवार, 10 जुलाई 2009

राष्ट्रगीत

राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है.

मखमल टमटम बल्लम तुरही
पगड़ी छत्र चंवर के साथ
तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर
जय-जय कौन कराता है.

पूरब-पश्चिम से आते हैं
नंगे-बूचे नरकंकाल
सिंहासन पर बैठा,
उनके
तमगे कौन लगाता है.

कौन-कौन है वह जन-गण-मन
अधिनायक वह महाबली
डरा हुआ मन बेमन जिसका
बाजा रोज बजाता है.

रघुवीर सहाय

गुरुवार, 9 जुलाई 2009

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बाँ अब तक तेरी है
तेरा सुतवाँ जिस्म है तेरा
बोल कि जाँ अब तक् तेरी है
देख के आहंगर की दुकाँ में
तुंद हैं शोले सुर्ख़ है आहन
खुलने लगे क़ुफ़्फ़लों के दहाने
फैला हर एक ज़न्जीर का दामन
बोल ये थोड़ा वक़्त बहोत है
जिस्म-ओ-ज़बाँ की मौत से पहले
बोल कि सच ज़िंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहने है कह ले

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग

मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग

मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़शाँ है हयात
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
तू जो मिल जाये तो तक़दीर निगूँ हो जाये
यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाये
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग

अनगिनत सदियों के तारीक बहिमाना तलिस्म
रेशम-ओ-अतलस-ओ-कमख़्वाब में बुनवाये हुये
जा-ब-जा बिकते हुये कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लिथड़े हुये ख़ून में नहलाये हुये
जिस्म निकले हुये अमराज़ के तन्नूरों से
पीप बहती हुई गलते हुये नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मग़र क्या कीजे
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

तुम न आये थे तो हर चीज़ वही थी के जो है

तुम न आये थे तो हर चीज़ वही थी के जो है
आसमाँ हद-ए-नज़र, राह-गुज़र राह-गुज़र, शीशा-ए-मय शीशा-ए-मय
और अब शीशा-ए-मय, राह-गुज़र, रंग-ए-फ़लक
रंग है दिल का मेरे "खून-ए-जिगर होने तक"
चम्पई रंग कभी, राहत-ए-दीदार का रंग
सुरमई रंग के है सा'अत-ए-बेज़ार का रंग
ज़र्द पत्तों का, खस-ओ-ख़ार का रंग
सुर्ख फूलों का, दहकते हुए गुलज़ार का रंग
ज़हर का रंग, लहू-रंग, शब-ए-तार का रंग

आसमाँ, राह-गुज़र, शीशा-ए-मय
कोई भीगा हुआ दामन, कोई दुखती हुई रग
कोई हर लहज़ा बदलता हुआ आइना है
अब जो आये हो तो ठहरो के कोई रंग, कोई रुत, कोई शय
एक जगह पर ठहरे

फिर से एक बार हर एक चीज़ वही हो जो है
आसमाँ हद-ए-नज़र, राह-गुज़र राह-गुज़र, शीशा-ए-मय शीशा-ए-मय

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त

चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़
ज़ुल्म की छाँव में दम लेने पर मजबूर हैं हम
इक ज़रा और सितम सह लें तड़प लें रो लें
अपने अज्दाद की मीरास है माज़ूर हैं हम

जिस्म पर क़ैद है जज़्बात पे ज़ंजीरे है
फ़िक्र महबूस है गुफ़्तार पे ताज़ीरें हैं
और अपनी हिम्मत है कि हम फिर भी जिये जाते हैं
ज़िन्दगी क्या किसी मुफ़्लिस की क़बा है
जिस में हर घड़ी दर्द के पैबंद लगे जाते हैं

लेकिन अब ज़ुल्म की मियाद के दिन थोड़े हैं
इक ज़रा सब्र कि फ़रियाद के थोड़े हैं

अर्सा-ए-दहर की झुलसी हुई वीरानी में
हम को रहना है पर यूँ ही तो नहीं रहना है
अजनबी हाथों का बेनाम गराँ-बार सितम
आज सहना है हमेशा तो नहीं सहना है

ये तेरी हुस्न से लिपटी हुई आलाम की गर्द
अपनी दो रोज़ा जवानी की शिकस्तों का शुमार
चाँदनी रातों का बेकार दहकता हुआ दर्द
दिल की बेसूद तड़प जिस्म की मायूस पुकार

चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

बीस साल बाद

बीस साल बाद
मेरे चेहरे में वे आँखें लौट आयी हैं
जिनसे मैंने पहली बार जंगल देखा है :
हरे रंग का एक ठोस सैलाब जिसमें सभी पेड़ डूब गए हैं।

और जहाँ हर चेतावनी
ख़तरे को टालने के बाद
एक हरी आँख बन कर रह गयी है।

बीस साल बाद
मैं अपने-आप से एक सवाल करता हूँ
जानवर बनने के लिए कितने सब्र की ज़रूरत होती है?
और बिना किसी उत्तर के चुपचाप
आगे बढ़ जाता हूँ
क्योंकि आजकल मौसम का मिज़ाज यूँ है
कि खून में उड़ने वाली पंक्तियों का पीछा करना
लगभग बेमानी है।

दोपहर हो चुकी है
हर तरफ़ ताले लटक रहे हैं
दीवारों से चिपके गोली के छर्रों
और सड़कों पर बिखरे जूतों की भाषा में
एक दुर्घटना लिखी गई है
हवा से फड़फड़ाते हिन्दुस्तान के नक़्शे पर
गाय ने गोबर कर दिया है।

मगर यह वक़्त घबराये हुए लोगों की शर्म
आँकने का नहीं
और न यह पूछने का –
कि संत और सिपाही में
देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य कौन है!

आह! वापस लौटकर
छूटे हुए जूतों में पैर डालने का वक़्त यह नहीं है
बीस साल बाद और इस शरीर में
सुनसान गलियों से चोरों की तरह गुज़रते हुए
अपने-आप से सवाल करता हूँ –
क्या आज़ादी सिर्फ़ तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इसका कोई खास मतलब होता है?

और बिना किसी उत्तर के आगे बढ़ जाता हूँ
चुपचाप।

धूमिल

एकान्त-कथा

मेरे पास उत्तेजित होने के लिए
कुछ भी नहीं है
न कोकशास्त्र की किताबें
न युद्ध की बात
न गद्देदार बिस्तर
न टाँगें, न रात
चाँदनी
कुछ भी नहीं

बलात्कार के बाद की आत्मीयता
मुझे शोक से भर गयी है
मेरी शालीनता – मेरी ज़रूरत है
जो अक्सर मुझे नंगा कर गयी है

जब कभी
जहाँ कहीं जाता हूँ
अचूक उद्दण्डता के साथ देहों को
छायाओं की ओर सरकते हुए पाता हूँ
भट्ठियाँ सब जगह हैं
सभी जगह लोग सेकते हैं शील
उम्र की रपटती ढलानों पर
ठोकते हैं जगह-जगह कील –
कि अनुभव ठहर सकें
अक्सर लोग आपस में बुनते हैं
गहरा तनाव
वह शायद इसलिए कि थोड़ी देर ही सही
मृत्यु से उबर सकें
मेरी दृष्टि जब भी कभी
ज़िन्दगी के काले कोनों मे पड़ी है
मैंने वहाँ देखी है –
एक अन्धी ढलान
बैलगाड़ियों को पीठ पर लादकर
खड़ी है
(जिनमें व्यक्तित्व के सूखे कंकाल हैं)
वैसे यह सच है –
जब
सड़कों मे होता हूँ
बहसों में होता हूँ;
रह-रह चहकता हूँ
लेकिन हर बार वापस घर लौटकर
कमरे के अपने एकान्त में
जूते से निकाले गए पाँव-सा
महकता हूँ।

धूमिल

वसन्त

इधर मैं कई दिनों से प्रतीक्षा
कर रहा हूँ : कुर्सी में
टिमटिमाते हुए आदमी की आँखों में
ऊब है और पड़ौसी के लिए
लम्बी यातना के बाद
किसी तीखे शब्द का आशय
अप्रत्याशित ध्वनियों के समानान्तर
एक खोखला मैदान है
और मासिकधर्म में डूबे हुए लत्ते-सा
खड़खड़ाता हुआ दिन
जाड़े की रात में
जले हुए कुत्ते का घाव
सूखने लगा है
मेरे आस-पास
एक अजीब-सा स्वाद-भरा रूखापन है
उधार देने वाले बनिये के
नमस्कार की तरह
जिसे मैं मात्र इसलिए सहता हूँ
कि इसी के चलते मौज से
रहता हूँ
मेरे लिए अब कितना आसान हो गया है
नामों और आकारों के बीच से
चीज़ों को टटोलकर निकालना
अपने लिए तैयार करना –
और फिर उस तनाव से होकर –
गुज़र जाना
जिसमें ज़िम्मेदारियाँ
आदमी को खोखला करती हैं
मेरे लिए वसन्त
बिलों के भुगतान का मौसम है
और यह वक़्त है कि मैं वसूली भी करूँ –
टूटती हुई पत्तियों की उम्र
जाड़े की रात जले कुत्ते का दुस्साहस
वारण्ट के साथ आये अमीन की उतावली
और पड़ौसियों का तिरस्कार
या फिर
उन तमाम लोगों का प्यार
जिनके बीच
मैं अपनी उम्मीद के लिए
अपराधी हूँ
यह वक़्त है कि मैं
तमाम झुकी हुई गरदनों को
उस पेड़ की और घुमा दूँ
जहाँ वसन्त दिमाग से निकले हुए पाषाणकालीन पत्थर की तरह
डाल से लटका हुआ है
यह वक़्त है कि हम
कहीं न कहीं सहमत हों
वसन्त
मेरे उत्साहित हाथों में एक
ज़रूरत है
जिसके सन्दर्भ में समझदार लोग
चीज़ों को
घटी हुई दरों में कूतते हैं
और कहते है :
सौन्दर्य में स्वाद का मेल
जब नहीं मिलता
कुत्ते महुवे के फूल पर
मूतते हैं

धूमिल

अकाल-दर्शन

भूख कौन उपजाता है :
वह इरादा जो तरह देता है
या वह घृणा जो आँखों पर पट्टी बाँधकर
हमें घास की सट्टी मे छोड़ आती है?

उस चालाक आदमी ने मेरी बात का उत्तर
नहीं दिया।
उसने गलियों और सड़कों और घरों में
बाढ़ की तरह फैले हुए बच्चों की ओर इशारा किया
और हँसने लगा।

मैंने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा –
'बच्चे तो बेकारी के दिनों की बरकत हैं'
इससे वे भी सहमत हैं
जो हमारी हालत पर तरस खाकर, खाने के लिए
रसद देते हैं।
उनका कहना है कि बच्चे
हमें बसन्त बुनने में मदद देते हैं।

लेकिन यही वे भूलते हैं
दरअस्ल, पेड़ों पर बच्चे नहीं
हमारे अपराध फूलते हैं
मगर उस चालाक आदमी ने मेरी किसी बात का उत्तर
नहीं दिया और हँसता रहा – हँसता रहा – हँसता रहा
फिर जल्दी से हाथ छुड़ाकर
'जनता के हित में' स्थानांतरित
हो गया।

मैंने खुद को समझाया – यार!
उस जगह खाली हाथ जाने से इस तरह
क्यों झिझकते हो?
क्या तुम्हें किसी का सामना करना है?
तुम वहाँ कुआँ झाँकते आदमी की
सिर्फ़ पीठ देख सकते हो।

और सहसा मैंने पाया कि मैं खुद अपने सवालों के
सामने खड़ा हूँ और
उस मुहावरे को समझ गया हूँ
जो आज़ादी और गांधी के नाम पर चल रहा है
जिससे न भूख मिट रही है, न मौसम
बदल रहा है।
लोग बिलबिला रहे हैं (पेड़ों को नंगा करते हुए)
पत्ते और छाल
खा रहे हैं
मर रहे हैं, दान
कर रहे हैं।
जलसों-जुलूसों में भीड़ की पूरी ईमानदारी से
हिस्सा ले रहे हैं और
अकाल को सोहर की तरह गा रहे हैं।
झुलसे हुए चेहरों पर कोई चेतावनी नहीं है।

मैंने जब उनसे कहा कि देश शासन और राशन...
उन्होंने मुझे टोक दिया है।
अक्सर ये मुझे अपराध के असली मुकाम पर
अँगुली रखने से मना करते हैं।
जिनका आधे से ज़्यादा शरीर
भेड़ियों ने खा लिया है
वे इस जंगल की सराहना करते हैं –
'भारतवर्ष नदियों का देश है।'

बेशक यह ख्याल ही उनका हत्यारा है।
यह दूसरी बात है कि इस बार
उन्हें पानी ने मारा है।

मगर वे हैं कि असलियत नहीं समझते।
अनाज में छिपे उस आदमी की नीयत
नहीं समझते
जो पूरे समुदाय से
अपनी गिज़ा वसूल करता है –
कभी 'गाय' से
कभी 'हाथ' से

'यह सब कैसे होता है' मैं उसे समझाता हूँ
मैं उन्हें समझाता हूँ –
यह कौनसा प्रजातान्त्रिक नुस्खा है
कि जिस उम्र में
मेरी माँ का चेहरा
झुर्रियों की झोली बन गया है
उसी उम्र की मेरी पड़ौस की महिला
के चेहरे पर
मेरी प्रेमिका के चेहरे-सा
लोच है।

ले चुपचाप सुनते हैं।
उनकी आँखों में विरक्ति है :
पछतावा है;
संकोच है
या क्या है कुछ पता नहीं चलता।
वे इस कदर पस्त हैं :

कि तटस्थ हैं।
और मैं सोचने लगता हूँ कि इस देश में
एकता युद्ध की और दया
अकाल की पूंजी है।
क्रान्ति –
यहाँ के असंग लोगों के लिए
किसी अबोध बच्चे के –
हाथों की जूजी है।

धूमिल

कुत्ता

उसकी सारी शख्सियत
नखों और दाँतों की वसीयत है
दूसरों के लिए
वह एक शानदार छलांग है
अँधेरी रातों का
जागरण है नींद के खिलाफ़
नीली गुर्राहट है

अपनी आसानी के लिए तुम उसे
कुत्ता कह सकते हो

उस लपलपाती हुई जीभ और हिलती हुई दुम के बीच
भूख का पालतूपन
हरकत कर रहा है
उसे तुम्हारी शराफ़त से कोई वास्ता
नहीं है उसकी नज़र
न कल पर थी
न आज पर है
सारी बहसों से अलग
वह हड्डी के एक टुकड़े और
कौर-भर
(सीझे हुए) अनाज पर है

साल में सिर्फ़ एक बार
अपने खून से ज़हर मोहरा तलाशती हुई
मादा को बाहर निकालने के लिए
वह तुम्हारी ज़ंजीरों से
शिकायत करता है
अन्यथा, पूरा का पूर वर्ष
उसके लिए घास है
उसकी सही जगह तुम्हारे पैरों के पास है

मगर तुम्हारे जूतों में
उसकी कोई दिलचस्पी नही है
उसकी नज़र
जूतों की बनावट नहीं देखती
और न उसका दाम देखती है
वहाँ वह सिर्फ़ बित्ता-भर
मरा हुआ चाम देखती है
और तुम्हारे पैरों से बाहर आने तक
उसका इन्तज़ार करती है
(पूरी आत्मीयता से)

उसके दाँतों और जीभ के बीच
लालच की तमीज़ जो है तुम्हें
ज़ायकेदार हड्डी के टुकड़े की तरह
प्यार करती है

और वहाँ, हद दर्जे की लचक है
लोच है
नर्मी है
मगर मत भूलो कि इन सबसे बड़ी चीज़
वह बेशर्मी है
जो अन्त में
तुम्हें भी उसी रास्ते पर लाती है
जहाँ भूख –
उस वहशी को
पालतू बनाती है।

धूमिल

जनतन्त्र के सूर्योदय में

रक्तपात –
कहीं नहीं होगा
सिर्फ़, एक पत्ती टूटेगी!
एक कन्धा झुक जायेगा!
फड़कती भुजाओं और सिसकती हुई आँखों को
एक साथ लाल फीतों में लपेटकर
वे रख देंगे
काले दराज़ों के निश्चल एकान्त में
जहाँ रात में
संविधान की धाराएँ
नाराज़ आदमी की परछाईं को
देश के नक्शे में
बदल देती है

पूरे आकाश को
दो हिस्सों में काटती हुई
एक गूँगी परछाईं गुज़रेगी
दीवारों पर खड़खड़ाते रहेंगे
हवाई हमलों से सुरक्षा के इश्तहार
यातायात को
रास्ता देती हुई जलती रहेंगी
चौरस्तों की बस्तियाँ

सड़क के पिछले हिस्से में
छाया रहेगा
पीला अन्धकार
शहर की समूची
पशुता के खिलाफ़
गलियों में नंगी घूमती हुई
पागल औरत के 'गाभिन पेट' की तरह
सड़क के पिछले हिस्से में
छाया रहेगा पीला अन्धकार
और तुम
महसूसते रहोगे कि ज़रूरतों के
हर मोर्चे पर
तुम्हारा शक
एक की नींद और
दूसरे की नफ़रत से
लड़ रहा है
अपराधियों के झुण्ड में शरीक होकर
अपनी आवाज़ का चेहरा टटोलने के लिए
कविता में
अब कोई शब्द छोटा नहीं पड़ रहा है :
लेकिन तुम चुप रहोगे;
तुम चुप रहोगे और लज्जा के
उस गूंगेपन-से सहोगे –
यह जानकर कि तुम्हारी मातृभाषा
उस महरी की तरह है, जो
महाजन के साथ रात-भर
सोने के लिए
एक साड़ी पर राज़ी है
सिर कटे मुर्गे की तरह फड़कते हुए
जनतन्त्र में
सुबह –
सिर्फ़ चमकते हुए रंगों की चालबाज़ी है
और यह जानकर भी, तुम चुप रहोगे
या शायद, वापसी के लिए पहल करनेवाले –


आदमी की तलाश में

एक बार फिर
तुम लौट जाना चाहोगे मुर्दा इतिहास में
मगर तभी –
य़ादों पर पर्दा डालती हुई सबेरे की
फिरंगी हवा बहने लगेगी

अख़बारों की धूल और
वनस्पतियों के हरे मुहावरे
तुम्हें तसल्ली देंगे
और जलते हुए जनतन्त्र के सूर्योदय में
शरीक़ होने के लिए
तुम, चुपचाप, अपनी दिनचर्या का
पिछला दरवाज़ा खोलकर
बाहर आ जाओगे
जहाँ घास की नोक पर
थरथराती हुई ओस की एक बूंद
झड़ पड़ने के लिए
तुम्हारी सहमति का इन्तज़ार
कर रही है।

धूमिल

बनारस

इस शहर में वसंत
अचानक आता है
और जब आता है तो मैंने देखा है
लहरतारा या मडुवाडीह की तरफ़ से
उठता है धूल का एक बवंडर
और इस महान पुराने शहर की जीभ
किरकिराने लगती है

जो है वह सुगबुगाता है
जो नहीं है वह फेंकने लगता है पचखियाँ
आदमी दशाश्‍वमेध पर जाता है
और पाता है घाट का आखिरी पत्‍थर
कुछ और मुलायम हो गया है
सीढि़यों पर बैठे बंदरों की आँखों में
एक अजीब सी नमी है
और एक अजीब सी चमक से भर उठा है
भिखारियों के कटरों का निचाट खालीपन

तुमने कभी देखा है
खाली कटोरों में वसंत का उतरना!
यह शहर इसी तरह खुलता है
इसी तरह भरता
और खाली होता है यह शहर
इसी तरह रोज़ रोज़ एक अनंत शव
ले जाते हैं कंधे
अँधेरी गली से
चमकती हुई गंगा की तरफ़

इस शहर में धूल
धीरे-धीरे उड़ती है
धीरे-धीरे चलते हैं लोग
धीरे-धीरे बजते हैं घनटे
शाम धीरे-धीरे होती है

यह धीरे-धीरे होना
धीरे-धीरे होने की सामूहिक लय
दृढ़ता से बाँधे है समूचे शहर को
इस तरह कि कुछ भी गिरता नहीं है
कि हिलता नहीं है कुछ भी
कि जो चीज़ जहाँ थी
वहीं पर रखी है
कि गंगा वहीं है
कि वहीं पर बँधी है नाँव
कि वहीं पर रखी है तुलसीदास की खड़ाऊँ
सैकड़ों बरस से

कभी सई-साँझ
बिना किसी सूचना के
घुस जाओ इस शहर में
कभी आरती के आलोक में
इसे अचानक देखो
अद्भुत है इसकी बनावट
यह आधा जल में है
आधा मंत्र में
आधा फूल में है

आधा शव में
आधा नींद में है
आधा शंख में
अगर ध्‍यान से देखो
तो यह आधा है
और आधा नहीं भी है

जो है वह खड़ा है
बिना किसी स्‍थंभ के
जो नहीं है उसे थामें है
राख और रोशनी के ऊँचे ऊँचे स्‍थंभ
आग के स्‍थंभ
और पानी के स्‍थंभ
धुऍं के
खुशबू के
आदमी के उठे हुए हाथों के स्‍थंभ

किसी अलक्षित सूर्य को
देता हुआ अर्घ्‍य
शताब्दियों से इसी तरह
गंगा के जल में
अपनी एक टाँग पर खड़ा है यह शहर
अपनी दूसरी टाँग से
बिलकुल बेखबर!

केदारनाथ सिंह

धार

कौन बचा है जिसके आगे

इन हाथों को नहीं पसारा


यह अनाज जो बदल रक्त में

टहल रहा है तन के कोने-कोने

यह कमीज़ जो ढाल बनी है

बारिश सरदी लू में

सब उधार का, माँगा चाहा

नमक-तेल, हींग-हल्दी तक

सब कर्जे का

यह शरीर भी उनका बंधक


अपना क्या है इस जीवन में

सब तो लिया उधार

सारा लोहा उन लोगों का

अपनी केवल धार ।

अरुण कमल

जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिये

जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिये
आप भी इस भीड़ में घुस कर तमाशा देखिये

जो बदल सकती है इस पुलिया के मौसम का मिजाज़
उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिये

जल रहा है देश यह बहला रही है क़ौम को
किस तरह अश्लील है कविता की भाषा देखिये

मतस्यगंधा फिर कोई होगी किसी ऋषि का शिकार
दूर तक फैला हुआ गहरा कुहासा देखिये.

अदम गोंडवी

एक लिखी जा रही कविता का पहला ड्राफ्ट

बाहर सड़क पर जहां खुल्ला समाज है वहां हम
असुरक्षा, घृणा, भय और भूख को निर्लज्जता के साथ अपनी विकट मुस्कुराहटों में ढंकते
पांत में बैठे हैं आधी से भी अधिक सदी से अपनी पगार और मजूरी मांगते
न भिखारी हैं न गिरहकट न साधू न बाजीगर न मजमेबाज
न भांड न दरबारी

एक एक ईंट जोड़ी है
मिट्टी दुख बालू आंसू सिरमिट पसीना बदहवासी को
अपने जीवन में सानते हुए गारा बना कर
अभावों के बेचैन उनींदे रंदे चलाए हैं हमने
सीसम-सागौन के बेशकीमती नक्काशीदार चौखट-दरवाजों पलंगों-सिंहासनों पर
इसी राजधानी की किसी भी भाषा और भवन की सीढ़ियों पर झुक कर तो देखो ज़रा
हम, हमारे पुरखे, हमारी संतानें बाज़ाप्ता दफ़्न हैं यहां
उन्हीं के ऊपर बूट धरते कामयाब लोग जाते हैं संसद और शापिंगमॉल
अकादेमी और संस्थान, विश्वविद्यालय और बिड़ला मंदिर

एक दीवार उठाई है हमने कि हो अपना भी कहीं ठौर और सौ ठोकरें हजार अपमान झेले हैं
एक खिड़की निकालने पर देखो हमारी पीठ पर करोड़ों कोड़ों के लहूलुहान घाव हैं
एक रोशनदान बनाने के एवज में मुजरिमों की तरह
दिन-रात थाने पर बिठाया गया है हमें पुलसिया जुल्म ढाये गये हैं

कोई गिनती है कितने बनजारा कितने दया नायक कितने मेमन कितने दारा सिंह आपने
नियुक्त कर रखे हैं राष्ट्रीय संस्थानों में हमारे खिलाफ़ ?

एक छत डाली है बारिश और बिजलियों से अपने बच्चों की हिफाज़त में
और हमारा सारा इतिहास और समूचा भविष्य अगवा कर लिया गया है
फिरौती मांगी गई है हमसे लगातार हमारी चुप्पी की

एक कन्नी चलाई है खून रिसती उंगलियों से हमने अपने हजार साल के हुनर की
हमारी आत्मा को बूटों और विवादों तले रौंद दिया गया है

अगर हम चुप रहे हैं और ग़मगीन तो हिदायत दी गई है सख्त
`हंसो हंसो, ज़ल्दी हंसो कि फूलने-फलने लगे हैं लोग ......'

ऐसा क्यों है कुछ बताएंगे आप ?
कि किसी भी हाल में हमारा रहना और किसी भी तरह कहीं भी हमारा बसना
चैन छीनता रहा सदा आपकी
मशक्कत और ईमान की बुनियाद पर टिके हमारे घर
खटकते रहे आपकी बाज काफिर आंखों में हज़ारों-करोड़ों अभागे बाबरी मस्जिदों की तरह

हम फ़क़त आंकड़े
और हमारी छतें और दीवालें सिर्फ़ ढांचे क्यों रह गए हैं
कभी प्रगतिशील
और कभी धार्मिक हुकूमत वाले इस मुल्क के दस्तावेजों में
कुछ रोशनी डालेंगे विद्वान् सलाहकार महोदय ?

एक गुंबद एक मेहराब उठाया है हमने कि आकाश कुछ और करीब आ जाय पृथ्वी के
और रहस्यों के उजास में झिल्मिलाती गाथाओं और अलौकिक अनजान ज़िंदगियों से भरे
अनगिन झिलमिल नक्षत्रों को सब के सब अपनी-अपनी उंगलियों से छू लें
अंतरिक्ष के निर्वात को वे बच्चे भर दें अपनी पवित्र सांसों की भाप और किलकारियों से
जो कैडबरीज़ नहीं खाते जिनके नसीब में नहीं है दून और ऋषि वेली पब्लिक स्कूल
जो बन नहीं सकते `इंडियन आइडल´ या `वायंस ऑफ इंडिया´
वो बच्चियां जिनकी नियति में है एक दिन कोई सोनागाछी कोई कमाठीपुरा कोई फाकलैंड
या फिर आपकी कोठियों का गैरेज-कम-सर्वेंट क्वार्टर

वे जो कुचल दिये जाएंगे किसी नाइट क्लब से अपनी धुत्त बिंदास दोस्त को आधीरात नशे में
चूमते हुए लौटते
महान एन.आर.आइ. भारतीयों के बी.एम.डब्ल्यु. या मर्सिडीज़ कार के स्पेशल रेडियल टायरों के नीचे फुटपाथों में गहरी नींद में उस नाजुक पल
जब वे किसी आइ.टी. सिलिकॉन कांप्लेक्स, किसी रिसॉर्ट या किसी किसी विशाल बांध में डूबे अपने गांव और घर
के स्वप्न देख रहे होंगे

पूरे कायनात सारी दुनिया में आज तक कभी न देखी गई एक मीनार उठाई हमने दिन रात
कि अब आगे से तेजाब और बारूद नहीं आकाश से
पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण में खिंच कर गिरें सिर्फ साराशार बारिश की लड़ियां और बौछारें,
ओस की शीतल साफ बूंदें, बर्फ के फाहे और बादलों के टुकड़े
अंतरिक्ष में कहीं भटकती हुईं अमर पुराने गानों की धुनें और बंदिशे
बदले में देख रहे हैं आप ?
हमारे चेहरे अफवाहों की आग में झुलसा दिये गये हैं
यंत्रणाओं की सुरंग में झोंक दिये गये हैं हमारे बाल-बच्चे हमारे परिवार

यकीन करिये, हम भी अकेले में अपनी समूची आत्मा और अपने पूरे शरीर की सिहरन के साथ गाते हैं
ए.आर.रहमान का इंडिया गेट वाला हिट कॉमर्शियल नेशनल सांग -
`मां तुझे सलाम .....´
अटेंशन खड़े हो जाते हैं मुह का कौर थाली में छोड़ कर जब बजता है कहीं
`जय हे ...! जय हे !!´

अपनी ही भाषा और अपने ही लोकतंत्र के भीतर हम अबुगरेब के कैदी
अपने ही कुएं का तेल अपनी ही नदी का जल पीने से प्रतिबंधित
हत्यारों के उत्सव समारोह में अंगौछे में छुपाए अपना मुंह
बैठे हैं सबसे पीछे की कतार के एक धुंधले कोने में
छाती दबा कर रोके हुए अपनी खांसी और अपना बलगम

कि आप सब ताकतवर दलाल लुटेरे खुशमिजाज महामहिम पी-खा कर
बोल-बाल कर जनता के खजाने से लूट का असबाब समेट-बटोर कर
खाली करें सभागार तो हम जाजिम और कुर्सियां समेटें
झाड़ू लगाएं
फिर किसी कोने में बैठ कर चैन और इत्मीनान से
औलिया और राम का नाम ले रोटियों के गस्से तोड़ें
पियें कंठ भर पानी और वापस
अपने घर जाएं ।

उदय प्रकाश

तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है

तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है

उधर जम्हूरियत का ढोल पीते जा रहे हैं वो
इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है ,नवाबी है

लगी है होड़ - सी देखो अमीरी औ गरीबी में
ये गांधीवाद के ढाँचे की बुनियादी खराबी है

तुम्हारी मेज़ चांदी की तुम्हारे जाम सोने के
यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रक़ाबी है

अदम गोंडवी

॥ रेख़्ते में कविता॥

जैसे कोई हुनरमंद आज भी
घोड़े की नाल बनाता दीख जाता है
ऊंट की खाल की मसक में जैसे कोई भिश्ती
आज भी पिलाता है जामा मस्ज़िद और चांदनी चौक में
प्यासों को ठंडा पानी

जैसे अमरकंटक में अब भी बेचता है कोई साधू
मोतियाबिंद के लिए गुलबकावली का अर्क

शर्तिया मर्दानगी बेचता है
हिंदी अखबारों और सस्ती पत्रिकाओं में अपनी मूंछ और पग्गड़ के
फोटो वाले विज्ञापन में हकीम बीरूमल आर्यप्रेमी

जैसे पहाड़गंज रेल्वे स्टेशन के सामने सड़क की पटरी पर
तोते की चोंच में फंसा कर बांचता है ज्योतिषी
किसी बदहवास राहगीर का भविष्य
और तुर्कमान गेट के पास गौतम बुद्ध मार्ग पर
ढाका या नेपाल के किसी गांव की लड़की
करती है मोलभाव रोगों, गर्द, नींद और भूख से भरी
अपनी देह का

जैसे कोई गड़रिया रेल की पटरियों पर बैठा
ठीक गोधूलि के समय
भेड़ों को उनके हाल पर छोड़ता हुआ
आज भी बजाता है डूबते सूरज की पृष्ठभूमि में
धरती का अंतिम अलगोझा

इत्तेला है मीर इस जमाने में
लिक्खे जाता है मेरे जैसा अब भी कोई कोई
उसी रेख़्ते में कविता ।

ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नज़ारों में

न महलों की बुलंदी से न लफ़्ज़ों के नगीने से
तमद्दुन में निखार आता है घीसू के पसीने से

कि अब मर्क़ज़ में रोटी है,मुहब्बत हाशिये पर है
उतर आई ग़ज़ल इस दौर मेंकोठी के ज़ीने से

अदब का आइना उन तंग गलियों से गुज़रता है
जहाँ बचपन सिसकता है लिपट कर माँ के सीने से

बहारे-बेकिराँ में ता-क़यामत का सफ़र ठहरा
जिसे साहिल की हसरत हो उतर जाए सफ़ीने से

अदीबों की नई पीढ़ी से मेरी ये गुज़ारिश है
सँजो कर रक्खें ‘धूमिल’ की विरासत को क़रीने से.

अदम गोंडवी

।। एक ज़ल्दबाज़ बुरी कविता में आंकड़े।।

कविता का एक वाक्य लिखने में दो मिनट लगते है
इतनी देर में चालीस हज़ार बच्चे मर चुके होते हैं
ज़्यादातर तीसरी दुनिया के भूख और रोग से

दस वाक्यों की ख़राब ज़ल्दबाज़ कविता में अमूमन लग जाते हैं
बीस से पच्चीस मिनट
इतनी देर में चार से पांच लाख बच्चे समा जाते हैं
मौत के मुंह में
कविता अच्छी हो इतनी कि कवि और आलोचक
उसे कविता कहना पसंद न करें या उसके कई ड्राफ्ट तैयार हों
तो तब तक कई करोड़ बच्चे, कई हज़ार या लाख औरतें और नागरिक
मर चुके होते हैं निरपराध इस विश्वतंत्र में

यानी ज़्यादा मुकम्मल कविता के नीचे
एक ज़्यादा बड़ा शमशान होता है

जितना बड़ा शमशान
उतना ही कवि और राष्ट्र महान्

उदय प्रकाश

दयार

दिल्ली को एक उजड़ा हुआ दयार
आखिरी अभागे मुगल बादशाह ज़फ़र ने कहा था
जहां से उसका दिल उचाट था आखिरी दिनों

किसका दिल लगा करता है दिल्ली में
कौन आबाद हुआ करता है दिल्ली में
ज़फ़र के डेढ़ सौ साल बाद
यह एक ज़रूरी आर्थिक और राजनीतिक सवाल है
इसीके जवाब में कहीं दिखेगी हिंदुस्तानियों के भाग्य पर लगे
ताले की गुमशुदा चाभी

गर्मियों में चांदी की थाल में दोपहर
यमुना के किनारे उगाये गये खरबूज़ों और काबुल से लाये गये
सरदा की ख़ुशबू से भरी मीठी फ़ांकें जिसके लिए आती थीं हर रोज़
उसी में भेजा गया था उसके दोनों बेटों के कटे हुए सर

जलावतनी में मरने के पहले तक
रंगून में यही अंतिम स्मृति रही होगी
मेरे खयाल से बहादुरशाह ज़फ़र के भीतर दिल्ली की

आज तलक बदस्तूर फ़ौज़ी छावनी है लालकिला
और एक हिस्सा अजायबघर
जिसमें टिकट ख़रीद कर पर्यटक देख सकते हैं लाइट एंड साउंड कार्यक्रम
जहां से फहराया जाता है हर साल एक नियत तारीख़ पर झंडा

आलम में इंतख़ाब यह शहर अब एक लदा-पदा हहराता
रंगीन दयार है दौलतमंद
शाहजहानाबाद में भी चलने लगी है बेआवाज़ मेट्रो
लुटियन के टीले पर रहते हैं ज़फ़र के डेढ़ सौ साल बाद के हुक्मरान
सियासत और तारीख़ यहां फ़कत लाइट एंड साउंड कार्यक्रम है
रिमोट की एक हरकत पर सामने परदे पर हाज़िर

सब्र करो दिल्ली वासियो सब्र

इस दयार के किसी एक शाख पर
जून पचहत्तर में किसी बदहवास सुदूर पूरबी बयार के साथ आकर अटका
एक ज़र्द सूखता पत्ता

मैं अब गिरा
कि तब ।
उदय प्रकाश

सोमवार, 6 जुलाई 2009

उजाला

बचा लो अपनी नौकरी
अपनी रोटी, अपनी छत
ये कपड़े हैं
तेज़ अंधड़ में
बन न जाएँ कबूतर
दबोच लो इन्हें
इस कप को थामो
सारी नसों की ताकत भर
कि हिलने लगे चाय
तुम्हारे भीतर की असुरक्षित आत्मा की तरह
बचा सको तो बचा लो
बच्चे का दूध और रोटी के लिए आटा
और अपना ज़ेब खर्च
कुछ क़िताबें
हज़ारों अपमानों के सामने
दिन भर की तुम्हारी चुप्पी
जब रात में चीख़े
तो जाओ वापस स्त्री की कोख में
फिर बच्चा बन कर
दुनारा जन्म न लेने का
संकल्प लेते हुए
भीतर से टूट कर चूर-चूर
सहलाओ बेटे का ग़र्म माथा
उसकी आँच में
आने वाली कोंपलों की गंध है
उसकी नींद में
आने वाले दिनों का
उजाला है ।

रात में हारमोनिययम / उदय प्रकाश

सहानुभूति की मांग

आत्मा इतनी थकान के बाद
एक कप चाय मांगती है
पुण्य मांगता है पसीना और आँसू पोंछने के लिए एक
तौलिया
कर्म मांगता है रोटी और कैसी भी सब्ज़ी
ईश्वर कहता है सिरदर्द की गोली ले आना
आधा गिलास पानी के साथ
और तो और फकीर और कोढ़ी तक बंद कर देते हैं
थक कर भीख मांगना
दुआ और मिन्नतों की जगह
उनके गले से निकलती है
उनके ग़रीब फेफड़ों की हवा
चलिए मैं भी पूछता हूँ
क्या मांगूँ इस ज़माने से मीर
जो देता है भरे पेट को खाना
दौलतमंद को सोना, हत्यारे को हथियार,
बीमार को बीमारी, कमज़ोर को निर्बलता
अन्यायी को सत्ता
और व्याभिचारी को बिस्तर
पैदा करो सहानुभूति
कि मैं अब भी हँसता हुआ दिखता हूँ
अब भी लिखता हूँ कविताएँ।

रात में हारमोनिययम / उदय प्रकाश

अर्ज़ी

शक की कोई वज़ह नहीं है
मैं तो यों ही आपके शहर से गुज़रता
उन्नीसवीं सदी के उपन्यास का कोई पात्र हूँ
मेरी आँखें देखती हैं जिस तरह के दॄश्य, बेफ़िक्र रहें
वे इस यथार्थ में नामुमकिन हैं
मेरे शरीर से, ध्यान से सुनें तो
आती है किसी भापगाड़ी के चलने की आवाज़
मैं जिससे कर सकता था प्यार
विशेषज्ञ जानते हैं, वर्षों पहले मेरे बचपन के दिनों में
शिवालिक या मेकल या विंध्य की पहाड़ियों में
अंतिम बार देखी गई थी वह चिड़िया
जिस पेड़ पर बना सकती थी वह घोंसला
विशेषज्ञ जानते हैं, वर्षों पहले अन्तिम बार देखा गया था वह पेड़
अब उसके चित्र मिलते हैं पुरा-वानस्पतिक क़िताबों में
तने के फ़ासिल्स संग्रहालयों में
पिछले सदी के बढ़ई मृत्यु के बाद भी
याद करते हैं उसकी उम्दा इमारती लकड़ी
मेरे जैसे लोग दरअसल संग्रहालयों के लायक भी नहीं हैं
कोई क्या करेगा आख़िर ऎसी वस्तु रखकर
जो वर्तमान में भी बहुतायत में पाई जाती है
वैसे हमारे जैसों की भी उपयोगिता है ज़माने में
रेत घड़ियों की तरह हम भी
बिल्कुल सही समय बताते थे
हमारा सेल ख़त्म नहीं होता था
पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण हमें चलाता था
हम बहुत कम खर्चीले थे
हवा, पानी, बालू आदि से चल जाते थे
अगर कोयला डाल दें हमारे पेट में
तो यक़ीन करें हम अब भी दौड़ सकते हैं ।

रात में हारमोनिययम / उदय प्रकाश

रविवार, 5 जुलाई 2009

लाख बलाये एक नशेमन

कोई ये कह दे गुलशन गुलशन
लाख बलाये एक नशेमन
कामिल रहबर क़ातिल रहज़न
दिल सा दोस्त न दिल सा दुश्मन
फूल खिले हैं गुलशन गुलशन
लेकिन अपना अपना दामन
उम्रें बीतीं सदियाँ गुज़रीं
है वही अब तक अक़्ल का बचपन
इश्क़ है प्यारे खेल नहीं है
इश्क़ है कार-ए-शीशा-ओ-आहन
ख़ैर मिज़ाज-ए-हुस्न की या रब!
तेज़ बहुत है दिल की धड़कन
आज न जाने राज़ ये क्या है
हिज्र की शब और इतनी रौशन
तू ने सुलझ कर गेसू-ए-जानाँ
और बड़ा दी दिल की उलझन
चलती फिरती छाओं है प्यारे
किस का सहरा कैसा गुलशन
आ कि न जाने तुझ बिन कब से
रूह है लाश जिस्म है मदफ़न
काम अधूरा और आज़ादी
नाम बड़े और थोड़े दर्शन
रहमत होगी ग़लिब-ए-इसियाँ
रश्क करेगी पाकी-ए-दामन
काँटों का भी हक़ है कुछ आख़िर
कौन छुड़ाये अपना दामन

जिगर मुरादाबादी

मंगलवार, 30 जून 2009

मन करता है

इस जंगल को छोड़कर
गांव जाने का मन करता है
ढहाकर ये इमारत
घर बनाने का मन करता है

देखता हूं हर तरफ
सब भाग रहे हैं बेतहाशा
तेरी गोद में आकर अम्मा
सुस्ताने का मन करता है

चंद लोगों की मुट्ठी में
सारे सिक्के सारी ताकत
ऐसे लोगों की बस्ती में आग
लगाने का मन करता है

भविष्य देश का लिए कटोरा
लालबत्ती पर खड़ा है
उनके हाथों में कलम
थमाने का मन करता है

उखाड़ने को आतुर हैं जो
तानाशाही सरकारें
उनके दिलों में अब शोला
भड़काने का मन करता है

चकाचौंध इस शहर की
आंखों में चुभने लगी हैं
हमेशा के लिए अब इसकी
बत्ती बुझाने का मन करता है...

भागीरथ

गुरुवार, 25 जून 2009

करवट ले रहा है लोकतंत्र

उलझी हुई दाढ़ियों के बीच झांकती निर्दोष आंखें
पूछती हैं सरकार से अपना अपराध
जल, जंगल, जमीन के लिए लड़ना...अपराध है
जंगलियों के हक की बात करना...अपराध है
भूखों को रोटी के लिए जगाना...अपराध है
गर तुम्हारे शब्दकोश में है ये अपराध
तो ऐसी जेल पर सौ जवानियां कुर्बान
जेल से ही रचे जाते रहे हैं इतिहास

इस बेचैनी पर मंद मंद मुस्कुरा रहा हैं शहंशाह
और नींद में ही बुदबुदा रहा है
तुम भी बन सकते थे सरकारी डॉक्टर
या फिर खोल लेते कोई नर्सिंग होम ही
गर कुछ नहीं तो एनजीओ ही सही
सरकार के रहमोकरम पर चल पड़ती दुकान
क्या जरूरत थी उनके बीच खुद को खपाने की
जंगल से खदेडे जाते हैं लोग....मौन धारण करते
भूख से बिलखते हैं बच्चे...चुप्पी ओढ लेते,
क्या जरूरत थी इनके झंडाबरदार बनने की
लोगों की चुप्पी को आवाज देने की
शहंशाह के आंखों में आंखें डाल सवाल करने की
अब भुगतो अपने किए की सजा

आज अमीरों की गोद में नंगी सो रही है सरकार
बढा रही है उनके साथ सत्ता की पींगें
और इन्हीं दिनों गरीबों पर कसता जा रहा है
सरकारी फंदा
शहंशाह को पता है इनकी हदें
एक पौव्वे पर ही डाल आते हैं कमल, पंजे पर वोट
रोटी के एक टुकडे पर बिक रहा है
लोकतंत्र
इन्हीं दिनों फुटपाथ पर करवट ले रहा है
लोकतंत्र
उनकी चरमराहट से बेखबर सो रही है
सरकार
उसके खर्राटे की आवाज अब लोगों को डराती नहीं
एक विनायक सेन की आवाज हिला देती है सत्ता की चूलें
वो हंस रही है सरकार की बेबसी पर मौन
और कर रही है इंतजार आने वाले कल का
जब शहंशाह की मोटी गर्दन पर कसा जाएगा
लोकतंत्र का फंदा

एक ऐसे दौर में
जब शहंशाह के मौन इशारों पर
लोग बनाए जाते रहेंगें बागी
यों ही कांपती रहेगी सरकार
एक अदने आदमी के भय से

चंदन राय

सोमवार, 22 जून 2009

साहित्यकार पत्रकार

मेरा एक दोस्त
साहित्यकार पत्रकार
तन के लिए पत्रकारिता
मन की भूख मिटाने के लिए
अपनी कल्पना को
कागज पर उतारता है
और मै पत्रकार
सिर्फ़ पत्रकार
ऐसा मानता हूँ
दूसरों का पता नहीं
वो कहानियां लिखता है
पुरस्कार पाता है
लिखता मै भी हूँ
कभी स्क्रिप्ट
कभी स्टोरी
बदले में पुरस्कार तो नहीं मिलता
लेकिन कुछ पैसा मिला जाता हैं
तन के लिए
उसे गुलज़ार से ले कर यादव तक
जानते हैं
मै खुद को खोज रहा हूँ
जानने के लिए
पहचानने के लिए
मन की भूख मिटाने के लिए

शशि शेखर
shekhar2k89@yahoo.com

शुक्रवार, 19 जून 2009

बेकार पत्रकार

एक पत्रकार , दूसरा बेकार
दोनों में कोई अंतर नहीं
फर्क है तो बस सोच का
सोच चिंता की,
चाहत की,
एक को खोने की चिंता,
दूसरे को पाने की,
लेकिन दूसरे को पता नहीं
अगर उसे मिल भी गया
तो एक दिन खोएगा
और अगर फ़िर भी मिल गया तो
फ़िर दूसरा
बन जाएगा पत्रकार
और पहला बेकार।

शशि शेखर
(एक पत्रकार पहली बार कवियाया है)

समय कोई कुत्ता नहीं

फ्रंटियर न सही, ट्रिब्यून पढ़ें
कलकत्ता नहीं ढ़ाका की बात करें
आर्गेनेइजर और पंजाब केसरी की कतरने लाएँ
मुझे बताएँ
ये चीलें किधर जा रहीं हैं?
समय कोई कुत्ता नहीं
जंजीर में बाँध जहाँ चाहे खींच लें
आप कहते हैं
माओ यह कहता है, वह कहता है
मैं कहता हूँ कि माओ कौन होता है कहने वाला?
शब्द बंधक नहीं हैं
समय खुद बात करता है
पल गूंगे नहीं हैं

आप बैठें रैबल में, या
रेहड़ी से चाय पियें
सच बोलें या झूठ
कोई फरक नहीं पड़ता है
चाहे चुप की लाश भी फलाँग लें

हे हुकूमत!
अपनी पुलीस से पूछ कर बता
सींकचों के भीतर मैं कैद हूँ
या फिर सींकचों के बाहर यह सिपाही?
सच ए॰ आई॰ आर॰ की रखैल नहीं
समय कोई कुत्ता नहीं

पाश

भूख

गेहूँ की पौध में टपकती हुई लार
लटे हुए हाथ की
आज की बालीयों के सेहत पूछती है।

कोई नारा नहीं, न कोई सीख
सांत्वना के बाहर एक दौड़ती जरूरत
चाकू की तलाश में मुट्ठियाँ खोलती है फैली हुई
हथेली पर रख देती है...
एक छापामार संकेत
सफ़र रात में तै करना है।

आततायी की नींद
एतवार का माहौल बना रही है
लोहे की जीभ : उचारती है
कवीता के मुहावरे
ओ आग! ओ प्रतिकार की यातना!!
एक फूल की कीमत
हज़ारों सीस्कीयों ने चुकाई है।

भूख की दर्शक-दीर्घा से कूदकर
मरी हुई आँतों का शोर
अकाल की पर्चियाँ फेंकता है।

आ मेरे साथ, आ मेरे साथ आ!
हड़ताल का रास्ता हथियार के रास्ते से
जुड़ गया है।
पीता की पसलियों से
माँ की आँखों से गुज़र
भाई के जबड़े से होती हुई मेरे बेटे की तनी हुई
मुट्ठी में आ! उतर! आ!
ओ आटे की शीशा!
चावल की सिटकी!
गाड़ी की अदृश्य तक बीछी हुई रेल
कोशीश की हर मुहीम पर
मैं तुम्हें खोलूँगा फिश-प्लेट की तरह
बम की तरह दे मारूँगा तेरे ही राज पर
बीन कर फेंक दूँगा
मेहनतकश की पसलीयों पर
तेरा उभार बदलाव को साबीत करता है
जैसे झोंपड़ी के बाहर
नारंगी के सूखे छीलके बताते हैं :
अंदर एक मरीज़ अब
स्वस्थ हो रहा है
ओ क्रांती की मुँहबोली बहन!

धूमिल

प्रजातंत्र

ना कहीं प्रजा है
ना कोई तंत्र है
ये आदमी का आदमी के खिलाफ
खुला षडयंत्र है

धूमिल

मौसम बदलने लगा है

फिर धीरे-धीरे यहाँ का मौसम बदलने लगा है ,
वातावरण सो रहा था अब आँख मलने लगा है ।


पिछले सफ़र की न पूछो , टूटा हुआ एक रथ है ,
जो रुक गया था कहीं पर , फिर साथ चलने लगा है ।


हमको पता भी नहीं था , वो आग ठंडी पड़ी थी ,
जिस आग पर आज पानी सहसा उबलने लगा है ।


जो आदमी मर चुके थे , मौजूद हैं इस सभा में ,
हर एक सच कल्पना से आगे निकलने लगा है ।


ये घोषणा हो चुकी है , मेला लगेगा यहाँ पर ,
हर आदमी घर पहुँचकर , कपड़े बदलने लगा है ।


बातें बहुत हो रही हैं,मेरे-तुम्हारे विषय में ,
जो रास्ते में खड़ा था पर्वत पिघलने लगा है ।

दुष्यन्त कुमार

एक ग़ज़ल

तंग गलियों से निकलकर, आसमान की बात कर
राम को मान और रहमान की भी बात कर

अपने बारे में हमेशा सोचना है ठीक पर
चंद लम्‍हों के लिए, आवाम की भी बात कर

बहारों के मौसम सभी को रास आते हैं मगर
सदियों से सूने पडे़, बियाबान की भी बात कर

तरक्कियां सबके लिए होती नहीं हैं एक-सी
अंतिम सीढ़ी पर खड़े, इंसान की भी बात कर

सिमट गई दुनिया लगती है, शहरों के ही इर्द-गिर्द
गावों में बसने वाले, हिन्‍दुस्‍तान की भी बात कर

टाटा-बिरला-अंबानियों के, कहो किस्‍से खूब पर
आत्‍महत्‍या कर रहे, किसान की भी बात कर

ख्‍वाब अपने कर सभी पूरे मगर
जिन्‍दा रहने के किसी अरमान की भी बात कर

भागीरथ

जमाना बदल गया है

लोग कहते हैं जमाना बदल गया है
रहा करते थे जहां वो आशियाना बदल गया है

तोडकर सीमाएं जग की प्रेम अब स्‍वछंद हुआ
मूक बनकर देखता हूं, अंदाज पुराना बदल गया है

बर्बाद कर दे भला, तूफान किसी का घर बार
तूफां में उजडे घर को, फिर से बसाना बदल गया है

लौट जा रे तू मुसाफिर वापस अपनी राहों में
आजकल इस शहर में, रस्‍ता बताना बदल गया है

मेरे सुख में हंसता था, मेरे दुख में रोता था
एहसास मुझे अब होता है, बेदर्द जमाना बदल गया है

भागीरथ

वो बात

बची रह गई
हर बार
वो बात,
जो थी जरूरी
तमाम बातों की
परतों में दबी
इन्तेज़ार करती रही
अपनी बारी का
बेमतलब था जो
कहा गया बहुत बार
बेवजह के किस्से
दुनियादारी की बातें
चलती रहीं
अबाध- निरंतर
जरूरी था जो
पड़ा रहा
धुल में लिपटा
एक कोने में
झटपटाता रहा
व्यक्त हो जाने को
और जब वो व्यक्त हुआ
कोई रहा न
सुननेवाला॥

भागीरथ

शुक्रवार, 5 जून 2009

कैसे हैं आप?

अजय यादव
जब भी कोई कहता है
'सुनो आदमी'
समझ में आता है
कि अपने भीतर के
जंगल और जानवर को मारो,
जब भी कोई कहता है
'बनो आदमी'
समझ में आता है
कि मेरे भीतर
कितना बचा है
जंगल और जानवर?
लेकिन
एक फर्क है
आदमी और जानवर में
जानवर,
भविष्य की योजनाएं तो बनाता है
लेकिन नहीं रख सकता यादों में
किसी को सहेजकर
और मैं,
उल्टे पांव चलती इस दुनियां में
जो मुझे अच्छा लगा
उसे भूलना नहीं चाहता......
बताइएं,
कैसे हैं आप?

शनिवार, 18 अप्रैल 2009

आग जलनी चाहिए

दुष्यन्त कुमार


हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए


आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए


हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए


सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए


मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

एक आशीर्वाद

दुष्यन्त कुमार

जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
भावना की गोद से उतर कर
जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।
चाँद तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लिये
रूठना मचलना सीखें।
हँसें
मुस्कुराऐं
गाऐं।
हर दीये की रोशनी देखकर ललचायें
उँगली जलायें।
अपने पाँव पर खड़े हों।
जा तेरे स्वप्न बड़े हों।

आग जलती रहे

दुष्यन्त कुमार

एक तीखी आँच ने
इस जन्म का हर पल छुआ,
आता हुआ दिन छुआ
हाथों से गुजरता कल छुआ
हर बीज, अँकुआ, पेड़-पौधा,
फूल-पत्ती, फल छुआ
जो मुझे छुने चली
हर उस हवा का आँचल छुआ
... प्रहर कोई भी नहीं बीता अछुता
आग के संपर्क से
दिवस, मासों और वर्षों के कड़ाहों में
मैं उबलता रहा पानी-सा
परे हर तर्क से
एक चौथाई उमर
यों खौलते बीती बिना अवकाश
सुख कहाँ
यों भाप बन-बन कर चुका,
रीता, भटकता
छानता आकाश
आह! कैसा कठिन
... कैसा पोच मेरा भाग!
आग चारों और मेरे
आग केवल भाग!

सुख नहीं यों खौलने में सुख नहीं कोई,
पर अभी जागी नहीं वह चेतना सोई,
वह, समय की प्रतीक्षा में है, जगेगी आप
ज्यों कि लहराती हुई ढकने उठाती भाप!

अभी तो यह आग जलती रहे, जलती रहे
जिंदगी यों ही कड़ाहों में उबलती रहे ।

घनी रात

मुक्तिबोध
घनी रात, बादल रिमझिम हैं, दिशा मूक, निस्तब्ध वनंतर
व्यापक अंधकार में सिकुड़ी सोयी नर की बस्ती भयकर
है निस्तब्ध गगन, रोती-सी सरिता-धार चली गहराती,
जीवन-लीला को समाप्त कर मरण-सेज पर है कोई नर
बहुत संकुचित छोटा घर है, दीपालोकित फिर भी धुंधला,
वधू मूर्छिता, पिता अर्ध-मृत, दुखिता माता स्पंदन-हीन
घनी रात, बादल रिमझिम हैं, दिशा मूक, कवि का मन गीला
“ये सब क्षनिक, क्षनिक जीवन है, मानव जीवन है क्षण-भंगुर”

क्षण-भंगुरता के इस क्षण में जीवन की गति, जीवन का स्वर
दो सौ वर्ष आयु होती तो क्या अधिक सुखी होता नर?
इसी अमर धारा के आगे बहने के हित ये सब नश्वर,
सृजनशील जीवन के स्वर में गाओ मरण-गीत तुम सुंदर
तुम कवि हो, यह फैल चले मृदु गीत निर्बल मानव के घर-घर
ज्योतित हों मुख नवम आशा से, जीवन की गति, जीवन का स्वर

वो सुबह कभी तो आएगी

माना कि अभी तेरे मेरे अरमानों कि कीमत कुछ भी नहीं
मिटटी का भी है मोल मगर इंसानों कि कीमत कुछ भी नहीं
जब इंसानों कि कीमत झूठे सिक्कों पे न तौली जायेगी
वो सुबह कभी तो आएगी

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

सब तुम्हें नहीं कर सकते प्यार

कुमार अम्बुज

यह मुमकिन ही नहीं कि सब तुम्हें करें प्यार
यह जो तुम बार-बार नाक सिकोड़ते हो
और माथे पर जो बल आते हैं
हो सकता है किसी एक को इस पर आए प्यार
लेकिन इसी वजह से ही कई लोग चले जाएंगें तुमसे दूर
सड़क पार करने की घबराहट खाना खाने में जल्दबाजी
या ज़रा-सी बात पर उदास होने की आदत
कई लोगों को तुम्हें प्यार करने से रोक ही देगी

फिर किसी को पसंद नहीं आएगी तुम्हारी चाल
किसी को ऑंख में ऑंख डालकर बात करना गुज़रेगा नागवार
चलते-चलते रुक कर इमली के पेड़ को देखना
एक बार फिर तुम्हारे खिलाफ जाएगा
फिर भी यदि तुमसे बहुत से लोग एक साथ कहें
कि वे सब तुमको करते हैं प्यार तो रुको और सोचो
यह बात जीवन की साधारणता के विरोध में जा रही है
देखो, इस शराब का रंग नीला तो नहीं हो रहा

यह होगा ही
कि तुम धीरे-धीरे अपनी तरह का जीवन जीओगे
और अपने प्यार करने वालों को
अजीब मुश्किल में डालते चले जाओगे

जो उन्नीस सौ चौहत्तर में और जो उन्नीस सौ नवासी में
करते थे तुमसे प्यार
उगते हुए पौधे की तरह देते थे पानी
जो थोड़ी-सी जगह छोड़ कर खड़े होते थे कि तुम्हें मिले प्रकाश
वे भी एक दिन इसलिए दूर जा सकते हैं कि अब
तुम्हारे होने की परछाईं उनकी जगह तक पहुँचती है

तुम्हारे पक्ष में सिर्फ यही उम्मीद हो सकती है
कि कुछ लोग तुम्हारे खुरदरेपन की वज़ह से भी
करने लगते हैं तुम्हें प्यार

जीवन में उस रंगीन चिडिया की तरफ देखो
जो किसी एक का मन मोहती है
और ठीक उसी वक्त एक दूसरा उसे देखता है
अपने शिकार की तरह।

सबसे उदास पंक्तियॉं

पाब्लो नेरुदा

आज की रात लिख सकता हूँ मैं सबसे उदास पंक्तियाँ।

लिख सकता जैसे- यह तारों भरी रात है
और तारे नीले हैं सुदूर और कांपते हैं।

रात की हवा चक्कर खाती है आसमान में और गाती है।

आज की रात मैं लिख सकता सबसे उदास पंक्तियाँ
मैंने उससे प्यार किया और कभी-कभी उसने भी मुझे प्यार किया।

ऐसी आज की तरह की रातों में वह मेरी बाहों में रही
मैंने उसे अनंत आकाश के नीचे बार-बार चूमा।

उसने मुझे प्यार किया, कभी-कभी मैंने भी उसे प्यार किया
आखिर कोई उसकी सुंदर निश्चल आखों को प्यार कैसे न करता।

आज की रात मैं लिख सकता सबसे उदास पंक्तियॉं
यह ख्याल करते हुए कि अब वह मेरे पास नहीं
यह सोचते हुए कि मैंने उसे खो दिया।

इस असीम रात को सुनते हुए, जो उसके बिना और असीम है
और कविता गिरती है आत्मा पर जैसे घास पर ओस।

क्या हुआ जो मेरा प्रेम उसे रोक नहीं पाया
यह तारों भरी रात है और वह मेरे साथ नहीं है।

बस। दूर कोई गा रहा है। बहुत दूर।
मेरी आत्मा बेचैन है कि वह मुझसे खो गयी।
मेरी निगाह उसे खोजती है कि उसे मैं पास ला सकूँ
मेरा हृदय उसके लिए विकल है, और वह मेरे साथ नहीं है।

वैसी ही रात उसी तरह, उन्हीं पेड़ों को चाँदनी का बना रही है
हम ही, जैसे थे, अब वैसे नहीं रह गए हैं।

तय है, अब मैं उसे प्यार नहीं करता, मगर मैंने उसे कितना प्यार किया।
मेरी आवाज उस हवा को खोजती है कि उसकी आवाज को छू सके।

किसी और की। वह किसी और की होगी।
जैसे पहले वह मेरे चुंबनों के लिए थी।
उसकी आवाज। उसकी उज्जवल देह। उसकी वे असीम आँखें।

सच है कि अब मैं उसे प्यार नहीं करता
पर मुमकिन है कि अब भी करता होऊँ
प्रेम इतना ही संक्षिप्त होता है और विस्मृति में इतना लंबा वक्त।

ऐसी ही रातों में भरता रहा मैं उसे बाहों में
मेरी आत्मा अशांत है कि उसे मैंने खो दिया।

मुमकिन है कि यह आखिरी वेदना है जो वह मुझे दे रही है
और मुमकिन है, ये आखिरी पंक्तियाँ हैं जो मैं उसके लिए लिख रहा हूँ ।

बुधवार, 15 अप्रैल 2009

वो बात

वो बात
बची रह गई
हर बार
वो बात,
जो थी जरूरी
तमाम बातों की
परतों में दबी
इन्तेज़ार करती रही
अपनी बारी का
बेमतलब था जो
कहा गया बहुत बार
बेवजह के किस्से
दुनियादारी की बातें
चलती रहीं
अबाध- निरंतर
जरूरी था जो
पड़ा रहा
धुल में लिपटा
एक कोने में
झटपटाता रहा
व्यक्त हो जाने को
और जब वो व्यक्त हुआ
कोई रहा न
सुननेवाला..

जब तलक जिंदा रहे

जब तलक जिंदा रहे
पहचान से इंकार था
जब खाक होकर मिट गए
सब कहते हैं फनकार था
जिसने सारी ज़िन्दगी
मुझको बहुत रुसवा किया
आज वही कह रहा है
मैं बहुत खुद्दार था