तेहि तर ठाढ़ हिरिनिया त मन अति अनमन हो।।
चरतहिं चरत हरिनवा त हरिनी से पूछेले हो
हरिनी ! की तोर चरहा झुरान कि पानी बिनु मुरझेलु हो।।
नाहीं मोर चरहा झुरान ना पानी बिनु मुरझींले हो
हरिना ! आजु राजा के छठिहार तोहे मारि डरिहें हो।।
मचियहिं बइठल कोसिला रानी, हरिनी अरज करे हो
रानी ! मसुआ त सींझेला रसोइया खलरिया हमें दिहितू नू हो।।
पेड़वा से टाँगबो खलरिया त मनवा समुझाइबि हो
रानी ! हिरी-फिरी देखबि खलरिया जनुक हरिना जियतहिं हो
जाहु हरिनी घर अपना, खलरिया ना देइब हो
हरिनी ! खलरी के खँजड़ी मढ़ाइबि राम मोरा खेलिहेनू हो।।
जब-जब बाजेला खँजड़िया सबद सुनि अहँकेली हो
हरिनी ठाढि ढेकुलिया के नीचे हरिन के बिजूरेली हो।।
विद्यानिवास मिश्र द्वारा सम्पादित कृति "वाचिक कविता भोजपुरी" से साभार (यह बहुत ही मशहूर सोहर है, हरिणी से हरिण एक प्रश्न पूछता है की वह उदास क्यों हैं। हरिणी उत्तर दे रही है कि आज कोसल नरेश के यहाँ छठीहार है और हरिण को छट्ठी के लिए मार डाला जाएगा। बाद में हरिणी और कौसल्या का संवाद है जहाँ हरिणी रानी से हरिण की खाल मांगती है जिससे वह उसे याद के रूप में अपने पास रख सके लेकिन कौसल्या ने यह कहते हुए की उसकी खाल से खंजड़ी बनाई जायेगी जिससे उनका लाल राम उससे खेल सके हरिणी को निराश होकर लौटना पड़ा। और जब-जब खंजड़ी बजती है हरिणी के मन में टीस उठती है) | |||||