मंगलवार, 12 जनवरी 2010

बिरिया सी झोर लइ - बुन्देली कविता

शिवानन्द मिश्र 'बुंदेला' बुन्देलखण्ड के प्रसिद्द कवि रहे हैंउन्होंने बुन्देली भाषा को विशेष पहचान देने के लिए सदैव प्रयास किये
इनकी बुन्देली कविता ‘बिरिया सी झोर लइ’ ने बुन्देला जी को तथा बुन्देली भाषा को नई पहचान दी। यहाँ आपकी यही कविता प्रस्तुत है-

तुरकन ने तिली सी अकोर लइ, गोरन ने गगरी सी बोर लइ।
अब अपने भारत के भैंयन ने, परजा कों बिरिया सी झोर लइ।
नेतन की बातन में घातें हैं।
इनके हैं दिन हमाईं रातें हैं।
मारपीट गारिन को समझत जे,
सब दुधार गैया की लातें हैं।
राजनीति कों तनक मरोर लइ, ढेर भरी सम्पदा अरोर लइ।
अब अपने भारत के भैंयन ने परजा कों बिरिया सी झोर लइ।
आउते जो गाँव उर गमैंयन में।
बैठते टिराय चार भैंयन में।
सांचो सो रामराज हुइ जातो,
गाउते मल्हार उन मड़ैंअन में।
कील कील जितै की तंगोर लइ, बूंद-बूंद रकत की निचोर लइ।
अब अपने भारत के भैंयन ने परजा कों बिरिया सी झोर लइ।
दओ उसेय पुलिस की पतेली ने।
लओ उधेर मुंसपी तसीली ने।
लील्हें सब लेत हैं किसानइं कों,
चींथ खाओ जजी ने वकीली ने।
मका केसी अड़िया चिथोर लइ, सहद की छतनियां सी टोर लइ।
अब अपने भारत के भैंयन ने परजा कों बिरिया सी झोर लइ।
दूध घी निकारें हम देहाती।
कतर कतर करब पक गई छाती।
मोंड़न के पेट काट बेंचत हैं,
खाय खाय बूस गये शहराती।
मिली तो महेरिअइ भसोर लइ, अमिअंन की गुठलिअइ चचोर लइ।
अब अपने भारत के भैंयन ने परजा कों बिरिया सी झोर लइ।

शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

इत्तफाक...

आज इत्तफाक से टकरा गई अपने आप से
ऐसा लगा बरसों बाद मिली हूं किसी बिछड़े यार से
"तुम तो दिखाई ही नहीं देते"  कहकर मैंने शिकायती लहजे में बात शुरू की थी
"रहने दो अब हमारे लिये तुम्हारे पास वक्त कहां" से किया था मैने ही अंत भी
मेरी बातों से नाराज़गी साफ झलक रही थी
और उसकी हर एक बात मुझे शांत करने की एक पहल दिख रही थी
बातों का कारवां निकल पड़ा
समय का जैसे अंदाजा ही ना था
थक सी गई थी मै भी इस दौड़भाग भरी ज़िंदगी से
एक सूकुन सा मिला था
किसी अपने से मुखातिब हुई थी...भले ही देर से
"फिर जल्द मिलना" कहकर मैंने घड़ी की तरफ देखा था
और ये कहकर मैं अपने आप से नज़रें नहीं मिला पाई थी
अंदर का दुख कब आंसू बनकर आंखों तक आ गया था
ये तब पता चला जब घड़ी की सूई और सब कुछ धुंधला सा दिखा था
चलते चलते एक ख्याल मन में आया था
क्या सच में मेरे पास इतना वक्त नहीं था?
भाग रही थी अपने ही आप से शायद ये एक कड़वा सच था..

शनिवार, 2 जनवरी 2010

नए साल की शुभकामनाएं !

खेतों की मेड़ों पर धूल भरे पाँव को
कुहरे में लिपटे उस छोटे से गाँव को
नए साल की शुभकामनाएं !

जांते के गीतों को बैलों की चाल को
करघे को कोल्हू को मछुओं के जाल को
नए साल की शुभकामनाएं !

इस पकती रोटी को बच्चों के शोर को
चौंके की गुनगुन को चूल्हे की भोर को
नए साल की शुभकामनाएं !

वीराने जंगल को तारों को रात को
ठंडी दो बंदूकों में घर की बात को
नए साल की शुभकामनाएं !

इस चलती आँधी में हर बिखरे बाल को
सिगरेट की लाशों पर फूलों से ख़याल को
नए साल की शुभकामनाएं !

कोट के गुलाब और जूड़े के फूल को
हर नन्ही याद को हर छोटी भूल को
नए साल की शुभकामनाएं !

उनको जिनने चुन-चुनकर ग्रीटिंग कार्ड लिखे
उनको जो अपने गमले में चुपचाप दिखे
नए साल की शुभकामनाएं !

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना