छूटा दगा दुमकटा साँड़
सींग रहित कनफटा सांड़
मंदिर, गली सड़क घाटों पर
दो चार गऊ संग डटा साँड़
भिड़ पड़े खोंमचा उधर गिरा
हुरपेटा कोई इधर गिरा
ढुर छें ढुर छें में पता नहीं
कब कौन आदमी किधर गिरा
कुछ ने मोटे को पुचकारा
कुछ ने दुबले को लरकारा
फिर क्या था साँड़ों के पीछे
हो गयी वहीं मारी मारा
एकदम बरबस
वाह ! बनारस
बैठे साव पुरोहित पंडा
ले ले छड़ी अंगोछा डंडा
‘बोल दे रजा राम’ चले पट्ठे
गहरेबाज पटनहा मुण्डा
इक्के राजघाट पुल आये
घोड़ों ने डैने फैलाये
मची करारी गहरेबाजी
भिड़ल रहे बस जाय न पाये
लऽरंगभंग पड़ गयल खलल
कुछ चित्त गिरे, कुछ मुँह के बल
फिर भी मुँह से था निकल रहा
बस खबरदार ! सब रहे हटल
अद्भुत साहस
वाह ! बनारस।
विश्वंभरनाथ त्रिपाठी की रचना "आज भी वही बनारस है" से साभार
शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010
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