शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

कैलाश गौतम की "कविता लौट पड़ी"

उतरे नहीं ताल पर पंछी

उतरे नहीं ताल पर पंछी
बादल नहीं घिरे
हम बंजारे
मारे-मारे
दिन भर आज फिरे।

गीत न फूटा
हँसी न लौटी
सब कुछ मौन रहा,
पगडन्डी पर आगे-आगे
जाने कौन रहा
हवा न डोली
छाँह न बोली
ऐसे मोड़ मिले।

आर-पार का न्योता देकर
मौसम चला गया
हिरन अभागा उसी रेत में
फिर-फिर छला गया
प्यासे ही रह गये
हमारे
पाटल नहीं खिले।

मन दो टूक हुआ है
सपने
चकनाचूर हुए
जितनी दूर नहीं सोचे थे
उतनी दूर हुए
रात गये
आँगन में सौ-सौ
तारे टूट गिरे।

बारिश में घर लौटा कोई

बारिश में घर लौटा कोई
दर्पण देख रहा
न्यूटन जैसे पृथ्वी का
आकर्षण देख रहा।
धान-पान सी आदमकद
हरियाली लिपटी है,
हाथों में हल्दी पैरों में
लाली लिपटी है
भीतर ही भीतर कितना
परिवर्तन देख रहा।

गीत-हँसी-संकोच-शील सब
मिले विरासत में
जो कुछ है इस घर में सब कुछ
प्रस्तुत स्वागत में
कितना मीठा है मौसम का
बंधन देख रहा।

नाच रही है दिन की छुवन
अभी भी आँखों में,
फूलझरी सी छूट रही है
वही पटाखों में
लगता जैसे मुड़-मुड़ कोई
हर क्षण देख रहा।

दिन भर चाह रही होठों पर,
दिन भर प्यास रही
रेशम जैसी धूप रही
मखमल सी घास रही
आँख मूँदकर
सुख
सर्वस्व समर्पण देख रहा।

लोकभारती प्रकाशन के "कविता लौट पड़ी" संग्रह से

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