गुरुवार, 9 जुलाई 2009

एक लिखी जा रही कविता का पहला ड्राफ्ट

बाहर सड़क पर जहां खुल्ला समाज है वहां हम
असुरक्षा, घृणा, भय और भूख को निर्लज्जता के साथ अपनी विकट मुस्कुराहटों में ढंकते
पांत में बैठे हैं आधी से भी अधिक सदी से अपनी पगार और मजूरी मांगते
न भिखारी हैं न गिरहकट न साधू न बाजीगर न मजमेबाज
न भांड न दरबारी

एक एक ईंट जोड़ी है
मिट्टी दुख बालू आंसू सिरमिट पसीना बदहवासी को
अपने जीवन में सानते हुए गारा बना कर
अभावों के बेचैन उनींदे रंदे चलाए हैं हमने
सीसम-सागौन के बेशकीमती नक्काशीदार चौखट-दरवाजों पलंगों-सिंहासनों पर
इसी राजधानी की किसी भी भाषा और भवन की सीढ़ियों पर झुक कर तो देखो ज़रा
हम, हमारे पुरखे, हमारी संतानें बाज़ाप्ता दफ़्न हैं यहां
उन्हीं के ऊपर बूट धरते कामयाब लोग जाते हैं संसद और शापिंगमॉल
अकादेमी और संस्थान, विश्वविद्यालय और बिड़ला मंदिर

एक दीवार उठाई है हमने कि हो अपना भी कहीं ठौर और सौ ठोकरें हजार अपमान झेले हैं
एक खिड़की निकालने पर देखो हमारी पीठ पर करोड़ों कोड़ों के लहूलुहान घाव हैं
एक रोशनदान बनाने के एवज में मुजरिमों की तरह
दिन-रात थाने पर बिठाया गया है हमें पुलसिया जुल्म ढाये गये हैं

कोई गिनती है कितने बनजारा कितने दया नायक कितने मेमन कितने दारा सिंह आपने
नियुक्त कर रखे हैं राष्ट्रीय संस्थानों में हमारे खिलाफ़ ?

एक छत डाली है बारिश और बिजलियों से अपने बच्चों की हिफाज़त में
और हमारा सारा इतिहास और समूचा भविष्य अगवा कर लिया गया है
फिरौती मांगी गई है हमसे लगातार हमारी चुप्पी की

एक कन्नी चलाई है खून रिसती उंगलियों से हमने अपने हजार साल के हुनर की
हमारी आत्मा को बूटों और विवादों तले रौंद दिया गया है

अगर हम चुप रहे हैं और ग़मगीन तो हिदायत दी गई है सख्त
`हंसो हंसो, ज़ल्दी हंसो कि फूलने-फलने लगे हैं लोग ......'

ऐसा क्यों है कुछ बताएंगे आप ?
कि किसी भी हाल में हमारा रहना और किसी भी तरह कहीं भी हमारा बसना
चैन छीनता रहा सदा आपकी
मशक्कत और ईमान की बुनियाद पर टिके हमारे घर
खटकते रहे आपकी बाज काफिर आंखों में हज़ारों-करोड़ों अभागे बाबरी मस्जिदों की तरह

हम फ़क़त आंकड़े
और हमारी छतें और दीवालें सिर्फ़ ढांचे क्यों रह गए हैं
कभी प्रगतिशील
और कभी धार्मिक हुकूमत वाले इस मुल्क के दस्तावेजों में
कुछ रोशनी डालेंगे विद्वान् सलाहकार महोदय ?

एक गुंबद एक मेहराब उठाया है हमने कि आकाश कुछ और करीब आ जाय पृथ्वी के
और रहस्यों के उजास में झिल्मिलाती गाथाओं और अलौकिक अनजान ज़िंदगियों से भरे
अनगिन झिलमिल नक्षत्रों को सब के सब अपनी-अपनी उंगलियों से छू लें
अंतरिक्ष के निर्वात को वे बच्चे भर दें अपनी पवित्र सांसों की भाप और किलकारियों से
जो कैडबरीज़ नहीं खाते जिनके नसीब में नहीं है दून और ऋषि वेली पब्लिक स्कूल
जो बन नहीं सकते `इंडियन आइडल´ या `वायंस ऑफ इंडिया´
वो बच्चियां जिनकी नियति में है एक दिन कोई सोनागाछी कोई कमाठीपुरा कोई फाकलैंड
या फिर आपकी कोठियों का गैरेज-कम-सर्वेंट क्वार्टर

वे जो कुचल दिये जाएंगे किसी नाइट क्लब से अपनी धुत्त बिंदास दोस्त को आधीरात नशे में
चूमते हुए लौटते
महान एन.आर.आइ. भारतीयों के बी.एम.डब्ल्यु. या मर्सिडीज़ कार के स्पेशल रेडियल टायरों के नीचे फुटपाथों में गहरी नींद में उस नाजुक पल
जब वे किसी आइ.टी. सिलिकॉन कांप्लेक्स, किसी रिसॉर्ट या किसी किसी विशाल बांध में डूबे अपने गांव और घर
के स्वप्न देख रहे होंगे

पूरे कायनात सारी दुनिया में आज तक कभी न देखी गई एक मीनार उठाई हमने दिन रात
कि अब आगे से तेजाब और बारूद नहीं आकाश से
पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण में खिंच कर गिरें सिर्फ साराशार बारिश की लड़ियां और बौछारें,
ओस की शीतल साफ बूंदें, बर्फ के फाहे और बादलों के टुकड़े
अंतरिक्ष में कहीं भटकती हुईं अमर पुराने गानों की धुनें और बंदिशे
बदले में देख रहे हैं आप ?
हमारे चेहरे अफवाहों की आग में झुलसा दिये गये हैं
यंत्रणाओं की सुरंग में झोंक दिये गये हैं हमारे बाल-बच्चे हमारे परिवार

यकीन करिये, हम भी अकेले में अपनी समूची आत्मा और अपने पूरे शरीर की सिहरन के साथ गाते हैं
ए.आर.रहमान का इंडिया गेट वाला हिट कॉमर्शियल नेशनल सांग -
`मां तुझे सलाम .....´
अटेंशन खड़े हो जाते हैं मुह का कौर थाली में छोड़ कर जब बजता है कहीं
`जय हे ...! जय हे !!´

अपनी ही भाषा और अपने ही लोकतंत्र के भीतर हम अबुगरेब के कैदी
अपने ही कुएं का तेल अपनी ही नदी का जल पीने से प्रतिबंधित
हत्यारों के उत्सव समारोह में अंगौछे में छुपाए अपना मुंह
बैठे हैं सबसे पीछे की कतार के एक धुंधले कोने में
छाती दबा कर रोके हुए अपनी खांसी और अपना बलगम

कि आप सब ताकतवर दलाल लुटेरे खुशमिजाज महामहिम पी-खा कर
बोल-बाल कर जनता के खजाने से लूट का असबाब समेट-बटोर कर
खाली करें सभागार तो हम जाजिम और कुर्सियां समेटें
झाड़ू लगाएं
फिर किसी कोने में बैठ कर चैन और इत्मीनान से
औलिया और राम का नाम ले रोटियों के गस्से तोड़ें
पियें कंठ भर पानी और वापस
अपने घर जाएं ।

उदय प्रकाश

1 टिप्पणी:

  1. भाई जावेद,
    तुमने तो उदय को हीरो बना दिया ... इस कविता के साथ साथ कामरेड मदन कश्यप की भी एक-आध कविता अगर डल जाये तो मज़ा आ जाये ....
    एक सिकायत भी है ... कम से कम "आधी दुनिया" की भी कुछ कविता होनी चाहिए
    यह खासा आश्चर्य का विषय है की इतनी कविता के बीच में एक भी महिला कवियत्री नहीं हैं. आशा करता हूँ की इस बात पर हमारे अन्य साथी भी ध्यान देंगे.

    नीरज कुमार

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