गुरुवार, 9 जुलाई 2009

एकान्त-कथा

मेरे पास उत्तेजित होने के लिए
कुछ भी नहीं है
न कोकशास्त्र की किताबें
न युद्ध की बात
न गद्देदार बिस्तर
न टाँगें, न रात
चाँदनी
कुछ भी नहीं

बलात्कार के बाद की आत्मीयता
मुझे शोक से भर गयी है
मेरी शालीनता – मेरी ज़रूरत है
जो अक्सर मुझे नंगा कर गयी है

जब कभी
जहाँ कहीं जाता हूँ
अचूक उद्दण्डता के साथ देहों को
छायाओं की ओर सरकते हुए पाता हूँ
भट्ठियाँ सब जगह हैं
सभी जगह लोग सेकते हैं शील
उम्र की रपटती ढलानों पर
ठोकते हैं जगह-जगह कील –
कि अनुभव ठहर सकें
अक्सर लोग आपस में बुनते हैं
गहरा तनाव
वह शायद इसलिए कि थोड़ी देर ही सही
मृत्यु से उबर सकें
मेरी दृष्टि जब भी कभी
ज़िन्दगी के काले कोनों मे पड़ी है
मैंने वहाँ देखी है –
एक अन्धी ढलान
बैलगाड़ियों को पीठ पर लादकर
खड़ी है
(जिनमें व्यक्तित्व के सूखे कंकाल हैं)
वैसे यह सच है –
जब
सड़कों मे होता हूँ
बहसों में होता हूँ;
रह-रह चहकता हूँ
लेकिन हर बार वापस घर लौटकर
कमरे के अपने एकान्त में
जूते से निकाले गए पाँव-सा
महकता हूँ।

धूमिल

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