गुरुवार, 9 जुलाई 2009

दयार

दिल्ली को एक उजड़ा हुआ दयार
आखिरी अभागे मुगल बादशाह ज़फ़र ने कहा था
जहां से उसका दिल उचाट था आखिरी दिनों

किसका दिल लगा करता है दिल्ली में
कौन आबाद हुआ करता है दिल्ली में
ज़फ़र के डेढ़ सौ साल बाद
यह एक ज़रूरी आर्थिक और राजनीतिक सवाल है
इसीके जवाब में कहीं दिखेगी हिंदुस्तानियों के भाग्य पर लगे
ताले की गुमशुदा चाभी

गर्मियों में चांदी की थाल में दोपहर
यमुना के किनारे उगाये गये खरबूज़ों और काबुल से लाये गये
सरदा की ख़ुशबू से भरी मीठी फ़ांकें जिसके लिए आती थीं हर रोज़
उसी में भेजा गया था उसके दोनों बेटों के कटे हुए सर

जलावतनी में मरने के पहले तक
रंगून में यही अंतिम स्मृति रही होगी
मेरे खयाल से बहादुरशाह ज़फ़र के भीतर दिल्ली की

आज तलक बदस्तूर फ़ौज़ी छावनी है लालकिला
और एक हिस्सा अजायबघर
जिसमें टिकट ख़रीद कर पर्यटक देख सकते हैं लाइट एंड साउंड कार्यक्रम
जहां से फहराया जाता है हर साल एक नियत तारीख़ पर झंडा

आलम में इंतख़ाब यह शहर अब एक लदा-पदा हहराता
रंगीन दयार है दौलतमंद
शाहजहानाबाद में भी चलने लगी है बेआवाज़ मेट्रो
लुटियन के टीले पर रहते हैं ज़फ़र के डेढ़ सौ साल बाद के हुक्मरान
सियासत और तारीख़ यहां फ़कत लाइट एंड साउंड कार्यक्रम है
रिमोट की एक हरकत पर सामने परदे पर हाज़िर

सब्र करो दिल्ली वासियो सब्र

इस दयार के किसी एक शाख पर
जून पचहत्तर में किसी बदहवास सुदूर पूरबी बयार के साथ आकर अटका
एक ज़र्द सूखता पत्ता

मैं अब गिरा
कि तब ।
उदय प्रकाश

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें