सोमवार, 10 जनवरी 2011

एक आँख वाला इतिहास

मैंने कठैती हड्डियों वाला एक हाथ देखा--
रंग में काला और धुन में कठोर ।

मैंने उस हाथ की आत्मा देखी--
साँवली और कोमल
और कथा-कहानियों से भरपूर !

मैंने पत्थरों में खिंचा
सन्नाटा देखा ।
जिसे संस्कृति कहते हैं ।

मैंने एक आँख वाला
इतिहास देखा
जिसे फ़िलहाल सत्य कहते हैं ।

दूधनाथ सिंह

धर्म

तेज़ी से एक दर्द
मन में जागा
मैंने पी लिया,
छोटी सी एक ख़ुशी
अधरों में आई
मैंने उसको फैला दिया,
मुझको सन्तोष हुआ
और लगा –
हर छोटे को
बड़ा करना धर्म है ।



दुष्यंत कुमार

आज जब वह जा रही है

(माँ की अंतिम यात्रा से लौटने पर)
वह जब थी
तो कुछ इस तरह थी
जैसे कोई भी बीमार बुढ़िया होती है
शहर के किसी भी घर में
अपने दिन गिनती।

वह जब थी
उस शहर और घर को
कोई ख़बर न थी
कि दर्द और संघर्ष की
अपनी दुनिया में
वह किस कदर अकेली थी ।

कहाँ शामिल था
ख़ुद मैं भी
उस तरह से
उसके होने में
जिस तरह से इस अंतिम यात्रा में हूं ?


आज जब वह जा रही है
तो रोता है घर
स्तब्ध ह्आ शहर
खड़ा हो गया है कोई दोनो हाथ जोड़े
दुकान में सरक गया है कोई मुँह फेर कर
भीड़ ने रास्ता दे दिया है उसे
ट्रैफिक थम गया है
गाड़ियाँ भारी-भरकम अपनी गर्वीली गुर्राहट बंद कर
एक तरफ हो गई हैं दो पल के लिए
चौराहे पर
वर्दीधारी उस सिपाही ने भी
अदब से ठोक दिया है सलाम।
आज जब जा रही है माँ
तो लगने लगा है सहसा
मुझे
इस घर को
और पूरे शहर को
कि वह थी... और अब नहीं रही।

अजेय

हे भले आदमियो !

डबाडबा गई है तारों-भरी
शरद से पहले की यह
अँधेरी नम
रात ।
उतर रही है नींद
सपनों के पंख फैलाए
छोटे-मोटे ह्ज़ार दुखों से
जर्जर पंख फैलाए
उतर रही है नींद
हत्यारों के भी सिरहाने ।
हे भले आदमियो !
कब जागोगे
और हथियारों को
बेमतलब बना दोगे ?
हे भले आदमियो !
सपने भी सुखी और
आज़ाद होना चाहते हैं ।


गोरख पाण्डेय


मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

बुधवार, 5 मई 2010

दुनिया का सबसे ग़रीब आदमी

दुनिया का सबसे ग़रीब आदमी

दुनिया का सबसे गैब इन्सान
कौन होगा
सोच रहा हूँ उसकी माली हालत के बारे में
नहीं! नहीं !! सोच नहीं
कल्पना कर रहा हूँ

मुझे चक्कर आने लगे हैं
ग़रीब दुनिया के गंदगी से पते
विशाल दरिद्र मीना बाजार का सर्वे करते हुए
देवियों और सज्जनों
'चक्कर आने लगे हैं "
यह कविता की पंक्ति नहीं
जीवनकंप है जिससे जूझ रहा इस वक़्त
झनझना रही है रीढ़ की हड्डी
टूट रहे हैं वाक्य
शब्दों के मलबे में दबी-फँसी मनुजता को
बचा नहीं पा रहा
और वह अभिशप्त, पथरी छायाओं की भीड़ में
सबसे पीछे गुमसुम धब्बे-जैसा
कौन-सा नंबर बताऊँ उसका
मुझे तो विश्व जनसँख्या के आकड़े भी
याद नही आ रहे फ़िलवक़्त
फेहरिस्तसाजों को
दुनिया के कम- से -कम एक लाख एक
सबसे अन्तिम ग़रीबों की
अपटुडेट सूची बनाना चाहिए
नाम, उम्र, गांव, मुल्क और उनकी
डूबी-गहरी कुछ नहीं-जैसी संपति के तमाम
ब्यौरों सहित

हमारे मुल्क के एक कवि के बेटे के पास
ग्यारह गाडियाँ जिसमें एक देसी भी
जिसके सिर्फ़ चारों पहियों के दाम दस लाख
बताए थे उसके आश्वर्य-शानो-शौकत के एक
शोधकर्ता ने
तब भी विश्व के धन्नासेठों में शायद हिन्
जगह मिले
और दमड़िबाई को जानता हूँ मैं
ग़रीबी के साम्राज्य के विरत रूप का दर्शन
उसके पास कह नहीं पाऊंगा जुबान गल जाएगी
पर इतना तो कह सकता हूँ वह दुनिया की
सबसे ग़रीब नहीं

दुनिया के सत्यापित सबसे धनी बिल गेट्स
का फ़ोटो
अख़बारों के पहले पन्ने पर
उसी के बगल में जो होता
दुनिया का सबसे ग़रीब का फ़ोटू
तो सूरज टूट कर बरस पड़ता भूमंडलीकरण की
तुलनात्मक हकीकत पर रोशनी डालने के लिए

पर कौन खींचकर लाएगा
उस निर्धनतम आदमी का फोटू
सातों समुन्दरों के कंकडों के बीच से
सबसे छोटा-घिसा-पिटा-चपटा कंकड़
यानी वह जिसे बापू ने अंतिम आदमी कहा था
हैरत होती है
क्या सोचकर कहा होगा
उसके आसूँ पोंछने के बारे में
और वे आसूँ जो अदृश्य सूखने पर भी बहते
ही रहते हैं

क्या कोई देख सकेगा उन्हें
और मेरी स्थिति कितनी शर्मनाक
न अमीरों की न गरीबों की गिनती में
और मेरी स्थिति कितनी शर्मनाक
न अमीरों की न गरीबों की गिनती में
मैं धोबी का कुत्ता प्रगतिशील
नीचे नहीं जा सका जिसके लिए
लगातार संघर्षरत रहे मुक्तिबोध
पांच रूपये महीने की ट्यूशन से चलकर
आज सत्तर की उमर में
नौ हजार पाँच सौ वाली पेंशन तक
ऊपर आ गया
फ़िर क्यों यह जीवनकंप
क्यों यह अग्निकांड
की दुनिया का सबसे गरीब आदमी
किस मुल्क में मिलेगा
क्या होगी उसकी देह-सम्पदा
उसकी रोशनी, उसकी आवाज-जुबान और
हड्डियाँ उसकी
उसके कुचले सपनों की मुट्ठीभर राख
किस हंडिया में होगी या अथवा
और रोजमर्रा की चीजें
लता होगा कितना जर्जर पारदर्शी शरीर पर
पेट में होंगे कितने दाने
या घास-पत्तियां
उसके इअर्द-गिर्द कितना घुप्प होगा
कितना जंगल में छिपा हुआ जंगल
मृत्यु से कितनी दुरी पर या नजदीक होगी
उसकी पता नहीं कौन-सी सांस
किन-किन की फटी आंखों और
बुझे चेहरों के बीच वह
बुदबुदा या चुगला रहा होगा
पता नहीं कौन-सा दृश्य, किसका नाम

कोई कैसे जान पाएगा कहाँ
किस अक्षांश-देशांश पर
क्या सोच रहा है अभी इस वक्त
क्या बेहोशी में लिख रहा होगा गूंगी वसीयत
दुनिया का सबसे गरीब आदमी
यानि बिल गेट्स की जात का नही
उसके ठीक विपरीत छोर के
अन्तिम बिन्दु पर खासता हुआ
महाश्वेता दीदी के पास भी
असंभव होगा उसका फोटू
जिसे छपवा देते दुनिया के सबसे बड़े
धन्नासेठ के साथ
और उसका नाम
मेरी क्या बिसात जे सोच पाऊं
जो होते अपने निराला-प्रेमचंद-नागार्जुन-मुक्तिबोध
या नेरुदा तो सम्भव है बता पाते
उसका सटीक कोई काल्पनिक नाम
वैसे मुझे पता है आग का दरिया है ग़रीबी
ज्वालामुखी है
आँधियों की आंधी
उसके झपट्टे-थपेडे और बवंडर
ढहा सकते हैं
नए- से -नए साम्राज्यवाद और पाखंड को
बड़े- से- बड़े गढ़-शिखर
उडा सकते पूंजी बाजार के
सोने-चांदी-इस्पात के पुख्ता टीन-टप्पर

पर इस वक़्त इतना उजाला
इतनी आँख-फोड़ चकाचौंध
दुश्मनों के फ़रेबों में फँसी पत्थर भूख
उन्हीं की जे-जयकार में शामिल
धड़ंग जुबानें
गाफ़िल गफ़लत में
गुणगान-कीर्तन में गूंगी
और मैं तरक्की की आकाशगंगा में
जगमगाती इक्कीसवीं सदी की छाती पर
एक हास्यास्पद दृश्य
हलकान दुनिया के सबसे ग़रीब आदमी के वास्ते

रविवार, 2 मई 2010

हम तो अपनी बावड़ी लेंगे


बावड़ी बावड़ी बाव बावड़ी
सभी कलेक्टर सभी कामिसनर, सभी मिनिस्टर मेरे हैं
दवाखाना पुलिस खाना कोर्ट बारिस्टर मेरे हैं
काहे को फिर धक्के खाऊ, धक्के नाही होना रे
हम तो अपनी बावड़ी लेंगे
बावड़ी हमको होना रे

यह योजना वोह स्कीमा, तन्दानो पे तन्दाने
घपलो की कवाल्ली यारों, घपलो की ही है ताने
अरे ऐसी ताने तन्दानो में, हमको नहीं खोना रे
हम तो अपनी बावड़ी लेंगे
बावड़ी हमको होना रे
बावड़ी बावड़ी बाव बावड़ी

अरे, जान से प्यारा हिंद हमारा, डेमोक्रेसी है आबाद
फिर भी लड़ना क्यूँ पड़ता है, क्यूँ करनी पड़ती फ़रियाद
साबुन लेके हाथ में निकले, सिस्टम को है धोना रे
हम तो अपनी बावड़ी लेंगे
बावड़ी हमको होना रे
बावड़ी बावड़ी बाव बावड़ी

अटक के ले ले, भटक के ले ले
ले झटक के ले ले, अपना हक
सारी दुनिया हाथ में होगी, क्यूँ लाता है मनन में शक
बारिश की नींद बरस जा
फसले तुझको बोना रे
हम तो अपनी बावड़ी लेंगे
बावड़ी हमको होना रे

नको नको हीरा मोती, नहीं बोना सोना रे
हम तो अपनी बावड़ी लेंगे
बावड़ी हमको होना रे
धूम तारा धूम तारा धूम तारा धूम तारा रे
अरे हम तोह अपनी बावड़ी लेंगे
बावड़ी हमको होना रे
बावड़ी बावड़ी बाव बावड़ी

फिल्म "वेल डन अब्बा" का ये गीत आम आदमी की आवाज़ को बुलंद करता है और आम आदमी की ताकत को दिखता है.

शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

मैं खामोश रहा

जब नाजी कम्युनिस्टों के पीछे आए
मैं खामोश रहा
क्योंकि, मैं नाजी नहीं था
जब उन्होंने सोशल डेमोक्रेट्स को जेल में बंद किया
मैं खामोश रहा
क्योंकि, मैं सोशल डेमोक्रेट नहीं था
जब वे यूनियन के मजदूरों के पीछे आए
मैं बिल्कुल नहीं बोला
क्योंकि,मैं मजदूर यूनियन का सदस्य नहीं था
जब वे यहूदियों के पीछे आए
मै खामोश रहा
क्योंकि, मैं यहूदी नहीं था
लेकिन, जब वे मेरे पीछे आए
तब बोलने के लिए कोई बचा ही नहीं था
क्योंकि, मैं अकेला था
-पीटर मार्टिन जर्मन कवि

शुक्रवार, 12 मार्च 2010

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

छापक पेड़ छिउलिया

छापक पेड़ छिउलिया त पतवन धनवन हो
तेहि तर ठाढ़ हिरिनिया त मन अति अनमन हो।।

चरतहिं चरत हरिनवा त हरिनी से पूछेले हो
हरिनी ! की तोर चरहा झुरान कि पानी बिनु मुरझेलु हो।।

नाहीं मोर चरहा झुरान ना पानी बिनु मुरझींले हो
हरिना ! आजु राजा के छठिहार तोहे मारि डरिहें हो।।

मचियहिं बइठल कोसिला रानी, हरिनी अरज करे हो
रानी ! मसुआ त सींझेला रसोइया खलरिया हमें दिहितू नू हो।।

पेड़वा से टाँगबो खलरिया त मनवा समुझाइबि हो
रानी ! हिरी-फिरी देखबि खलरिया जनुक हरिना जियतहिं हो

जाहु हरिनी घर अपना, खलरिया ना देइब हो
हरिनी ! खलरी के खँजड़ी मढ़ाइबि राम मोरा खेलिहेनू हो।।

जब-जब बाजेला खँजड़िया सबद सुनि अहँकेली हो
हरिनी ठाढि ढेकुलिया के नीचे हरिन के बिजूरेली हो।।

विद्यानिवास मिश्र द्वारा सम्पादित कृति "वाचिक कविता भोजपुरी" से साभार
(यह बहुत ही मशहूर सोहर है, हरिणी से हरिण एक प्रश्न पूछता है की वह उदास क्यों हैं। हरिणी उत्तर दे रही है कि आज कोसल नरेश के यहाँ छठीहार है और हरिण को छट्ठी के लिए मार डाला जाएगा। बाद में हरिणी और कौसल्या का संवाद है जहाँ हरिणी रानी से हरिण की खाल मांगती है जिससे वह उसे याद के रूप में अपने पास रख सके लेकिन कौसल्या ने यह कहते हुए की उसकी खाल से खंजड़ी बनाई जायेगी जिससे उनका लाल राम उससे खेल सके हरिणी को निराश होकर लौटना पड़ा। और जब-जब खंजड़ी बजती है हरिणी के मन में टीस उठती है)

वाह ! बनारस

छूटा दगा दुमकटा साँड़
सींग रहित कनफटा सांड़
मंदिर, गली सड़क घाटों पर
दो चार गऊ संग डटा साँड़
भिड़ पड़े खोंमचा उधर गिरा
हुरपेटा कोई इधर गिरा
ढुर छें ढुर छें में पता नहीं
कब कौन आदमी किधर गिरा
कुछ ने मोटे को पुचकारा
कुछ ने दुबले को लरकारा
फिर क्या था साँड़ों के पीछे
हो गयी वहीं मारी मारा
एकदम बरबस
वाह ! बनारस

बैठे साव पुरोहित पंडा
ले ले छड़ी अंगोछा डंडा
‘बोल दे रजा राम’ चले पट्ठे
गहरेबाज पटनहा मुण्डा
इक्के राजघाट पुल आये
घोड़ों ने डैने फैलाये
मची करारी गहरेबाजी
भिड़ल रहे बस जाय न पाये
लऽरंगभंग पड़ गयल खलल
कुछ चित्त गिरे, कुछ मुँह के बल
फिर भी मुँह से था निकल रहा
बस खबरदार ! सब रहे हटल
अद्भुत साहस
वाह ! बनारस।

विश्वंभरनाथ त्रिपाठी की रचना "आज भी वही बनारस है" से साभार

पुरुष-सूक्त : अँधेरे की ऋचा

वह एक समय था।
मैं पहाड़ों से चाँदनी की तरह उतरा करती थी
और मैंदानों में नदी की तरह फैल जाती थी
मेरे अन्दर हिम-संस्कृति की गरिमा थी
और हरे दृश्यों की पवित्रता।

मैं प्रेम करना चाहती थी
और रास्ते के
उस किसी भी पेड़, टेकरी या पहाड़ को
गिरा देना चाहती थी
जो मेरी रुकावट बनता था।
वह पेड़ भाई हो सकता था
वह टेकरी बहिन
और वह पहाड़ पिता हो सकता था।

मैं उन्हें याद करती हूँ
व्यक्तिगत अंक से कटे हुए शून्यों की तरह-अपने
प्रेमी या प्रेमपात्रों को,
वे एक या दो या तीन या
असंख्य भी हो सकते हैं।
उनके शरीर पर कवच थे
और पैर घुटनों तक जूते में बँधे थे
उनके सिर पर लोहे के टोप थे
और उनकी तलवारें अपशब्दों की तरह थीं—
जिन्हें वे हवा में उछालते हुए चलते थे।

वे अपने और अपनों के हितों के बारे में
आशंकित रहने वाले लोग थे।
जब कभी
उनकी रोटी, शराब या औरत में
कोई चीज़ कम हो जाती थी
तो वे छाती कूट कर रोते थे
वे अपने मरे हुए पुरखों की उन रातों के लिए भी रोते थे
जो उन्होंने घरेलू कलह के दौरान
औरतों के बिना गुज़ारी थीं
और उनके वंशजों के लिए भी
जिनके पास रोटी तो थी
पर जो अभी शराब और औरत नहीं जुटा पाये थे।

वे शामों और समुद्रों की
तटवर्ती आसक्तियों में प्रवृद्ध हुए लोग थे
गुलाबों और रजनीगन्धा की झालरों में
बार-बार मूर्च्छित होने वाले लोग।

दौड़कर आयी हुई नदी के किनारे
उन्होंने अपनी छतरियाँ तानी थीं
ताकि ठण्डी हवा के झोंकों के बीच
अपना घरेलू चन्दन घिस सकें
और मलबा फेंकने के लिए भी
उन्हें दूर न जाना पड़े।

प्रेम उनके लिए
कभी खिड़की से देखा जानेवाला एक सुन्दर भू-दृश्य होता
कभी भागकर छिपने के लिए मिला
एक निभृत स्थान।
वह नहीं था
धरती में रोपा जानेवाला कोई पौधा
या कोई लतर
जिसे श्रम के जल से सींचना ज़रूरी हो।
जब भी हवा या आकाश की बात होती
वे उसे उस क्षण की अपेक्षा से काटकर
किसी सुदूरवर्ती स्वप्न में ले जाते।

वे प्रकृति के निर्जन सन्नाटों में चल रहे
अभियानों की खबरों से भी जी चुराते थे
कि हस्तगत प्रेमिका की तरफ़ से, जीवन में
किसी भी साहसिक चेतावनी के ख़तरे को
आख़िर तक टाला जा सके।

वे एक ही सम्प्रदाय के लोग थे।
उनकी बातों और आदतों को शायद कहीं अलग किया जा सके
पर उनका स्मृति-प्रभाव
बिना किसी आश्चर्य के एक जैसा है।

वे आज भी ज़िन्दा हैं
सबके भविष्य को
अपने वर्तमान में निचोड़नेवाले लोग
बहते हुए रक्त की यन्त्रणापूर्ण रोशनी से
अपनी नावें सजानेवाले लोग।

वे हमेशा ज़िन्दा रहते हैं।

उन्होंने मुट्ठी भर रेत को रेगिस्तान कहा था
और कच्चे-से काँटे को सूली की संज्ञा दी थी।

मैंने विश्वास की पवित्र शिला पर खड़े होकर
अपने जीवन की आग पर पानी डाला था 

अमृता भारती की पुस्तक "सन्नाटे में दूर तक" से साभार

कैलाश गौतम की "कविता लौट पड़ी"

उतरे नहीं ताल पर पंछी

उतरे नहीं ताल पर पंछी
बादल नहीं घिरे
हम बंजारे
मारे-मारे
दिन भर आज फिरे।

गीत न फूटा
हँसी न लौटी
सब कुछ मौन रहा,
पगडन्डी पर आगे-आगे
जाने कौन रहा
हवा न डोली
छाँह न बोली
ऐसे मोड़ मिले।

आर-पार का न्योता देकर
मौसम चला गया
हिरन अभागा उसी रेत में
फिर-फिर छला गया
प्यासे ही रह गये
हमारे
पाटल नहीं खिले।

मन दो टूक हुआ है
सपने
चकनाचूर हुए
जितनी दूर नहीं सोचे थे
उतनी दूर हुए
रात गये
आँगन में सौ-सौ
तारे टूट गिरे।

बारिश में घर लौटा कोई

बारिश में घर लौटा कोई
दर्पण देख रहा
न्यूटन जैसे पृथ्वी का
आकर्षण देख रहा।
धान-पान सी आदमकद
हरियाली लिपटी है,
हाथों में हल्दी पैरों में
लाली लिपटी है
भीतर ही भीतर कितना
परिवर्तन देख रहा।

गीत-हँसी-संकोच-शील सब
मिले विरासत में
जो कुछ है इस घर में सब कुछ
प्रस्तुत स्वागत में
कितना मीठा है मौसम का
बंधन देख रहा।

नाच रही है दिन की छुवन
अभी भी आँखों में,
फूलझरी सी छूट रही है
वही पटाखों में
लगता जैसे मुड़-मुड़ कोई
हर क्षण देख रहा।

दिन भर चाह रही होठों पर,
दिन भर प्यास रही
रेशम जैसी धूप रही
मखमल सी घास रही
आँख मूँदकर
सुख
सर्वस्व समर्पण देख रहा।

लोकभारती प्रकाशन के "कविता लौट पड़ी" संग्रह से