गुमराह करती है।
खुश है, या खुश,
रहने की चाह करती है?
कुछ आँखों में बंद,
गुम लम्हों का पिटारा है।
नन्ही की किलकारी,
बिखरी यादों का नज़ारा है।
ग़मों की लकीरें हैं।
कभी मिटती हैं,
कभी मिट जाने की राह तकती हैं।
अपनी मुट्ठी में लिए,
तकदीरों का सवेरा है ।
मुकद्दर के साहिल पर,
अरमानो का रेला है।
हर शख्स यहाँ,
तन्हाई से लड़ता है।
अकेला है मगर,
अकेलेपन से डरता है।
जादू की इस नगरी में,
ख्वाबों का ताना-बना है।
कितनी ही उम्मीदों का,
बनता यहाँ फ़साना है।
हर पल हर दम,
इक सच्चाई से लड़ते हैं।
जीने की कोशिश में,
हर दिन थोड़ा मरते हैं।
इस ब्लॉग पर अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का अवसर प्रदान करने के लिए कवियाना का बहुत- बहुत धन्यवाद्। यहाँ प्रस्तुत सभी रचनायें बहुत ही बेहतेरीन हैं। इनके बीच मेरी एक छोटी सी रचना प्रस्तुत है । मेट्रो में सफर करते समय अक्सर लोगों को देखती हूँ। वहीँ से इन भावों ने जन्म लिया। एक कोशिश है, वैसे व्यक्ति हर दिन कुछ नया सीखता है। आपके सुझाव व टिप्पणी आमंत्रित हैं।
swagat hai aapka. kavita behatareen hai. aaj ke insan ki hakikat batati hai.
जवाब देंहटाएंhar shakhsha yahan tanhai se ladta hai..
akela hai magar akelepan se darta hai..
likhte rahiye..
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जवाब देंहटाएंkaahe ko dum saadhe rahiye
kariye kranti yahan bhi kariye
yuddh me jab Arjun hota hai
Karn ke hi dhaste hain pahiye
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