बुधवार, 15 अप्रैल 2009

वो बात

वो बात
बची रह गई
हर बार
वो बात,
जो थी जरूरी
तमाम बातों की
परतों में दबी
इन्तेज़ार करती रही
अपनी बारी का
बेमतलब था जो
कहा गया बहुत बार
बेवजह के किस्से
दुनियादारी की बातें
चलती रहीं
अबाध- निरंतर
जरूरी था जो
पड़ा रहा
धुल में लिपटा
एक कोने में
झटपटाता रहा
व्यक्त हो जाने को
और जब वो व्यक्त हुआ
कोई रहा न
सुननेवाला..

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें