शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

इत्तफाक...

आज इत्तफाक से टकरा गई अपने आप से
ऐसा लगा बरसों बाद मिली हूं किसी बिछड़े यार से
"तुम तो दिखाई ही नहीं देते"  कहकर मैंने शिकायती लहजे में बात शुरू की थी
"रहने दो अब हमारे लिये तुम्हारे पास वक्त कहां" से किया था मैने ही अंत भी
मेरी बातों से नाराज़गी साफ झलक रही थी
और उसकी हर एक बात मुझे शांत करने की एक पहल दिख रही थी
बातों का कारवां निकल पड़ा
समय का जैसे अंदाजा ही ना था
थक सी गई थी मै भी इस दौड़भाग भरी ज़िंदगी से
एक सूकुन सा मिला था
किसी अपने से मुखातिब हुई थी...भले ही देर से
"फिर जल्द मिलना" कहकर मैंने घड़ी की तरफ देखा था
और ये कहकर मैं अपने आप से नज़रें नहीं मिला पाई थी
अंदर का दुख कब आंसू बनकर आंखों तक आ गया था
ये तब पता चला जब घड़ी की सूई और सब कुछ धुंधला सा दिखा था
चलते चलते एक ख्याल मन में आया था
क्या सच में मेरे पास इतना वक्त नहीं था?
भाग रही थी अपने ही आप से शायद ये एक कड़वा सच था..

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें