मंगलवार, 30 जून 2009

मन करता है

इस जंगल को छोड़कर
गांव जाने का मन करता है
ढहाकर ये इमारत
घर बनाने का मन करता है

देखता हूं हर तरफ
सब भाग रहे हैं बेतहाशा
तेरी गोद में आकर अम्मा
सुस्ताने का मन करता है

चंद लोगों की मुट्ठी में
सारे सिक्के सारी ताकत
ऐसे लोगों की बस्ती में आग
लगाने का मन करता है

भविष्य देश का लिए कटोरा
लालबत्ती पर खड़ा है
उनके हाथों में कलम
थमाने का मन करता है

उखाड़ने को आतुर हैं जो
तानाशाही सरकारें
उनके दिलों में अब शोला
भड़काने का मन करता है

चकाचौंध इस शहर की
आंखों में चुभने लगी हैं
हमेशा के लिए अब इसकी
बत्ती बुझाने का मन करता है...

भागीरथ

गुरुवार, 25 जून 2009

करवट ले रहा है लोकतंत्र

उलझी हुई दाढ़ियों के बीच झांकती निर्दोष आंखें
पूछती हैं सरकार से अपना अपराध
जल, जंगल, जमीन के लिए लड़ना...अपराध है
जंगलियों के हक की बात करना...अपराध है
भूखों को रोटी के लिए जगाना...अपराध है
गर तुम्हारे शब्दकोश में है ये अपराध
तो ऐसी जेल पर सौ जवानियां कुर्बान
जेल से ही रचे जाते रहे हैं इतिहास

इस बेचैनी पर मंद मंद मुस्कुरा रहा हैं शहंशाह
और नींद में ही बुदबुदा रहा है
तुम भी बन सकते थे सरकारी डॉक्टर
या फिर खोल लेते कोई नर्सिंग होम ही
गर कुछ नहीं तो एनजीओ ही सही
सरकार के रहमोकरम पर चल पड़ती दुकान
क्या जरूरत थी उनके बीच खुद को खपाने की
जंगल से खदेडे जाते हैं लोग....मौन धारण करते
भूख से बिलखते हैं बच्चे...चुप्पी ओढ लेते,
क्या जरूरत थी इनके झंडाबरदार बनने की
लोगों की चुप्पी को आवाज देने की
शहंशाह के आंखों में आंखें डाल सवाल करने की
अब भुगतो अपने किए की सजा

आज अमीरों की गोद में नंगी सो रही है सरकार
बढा रही है उनके साथ सत्ता की पींगें
और इन्हीं दिनों गरीबों पर कसता जा रहा है
सरकारी फंदा
शहंशाह को पता है इनकी हदें
एक पौव्वे पर ही डाल आते हैं कमल, पंजे पर वोट
रोटी के एक टुकडे पर बिक रहा है
लोकतंत्र
इन्हीं दिनों फुटपाथ पर करवट ले रहा है
लोकतंत्र
उनकी चरमराहट से बेखबर सो रही है
सरकार
उसके खर्राटे की आवाज अब लोगों को डराती नहीं
एक विनायक सेन की आवाज हिला देती है सत्ता की चूलें
वो हंस रही है सरकार की बेबसी पर मौन
और कर रही है इंतजार आने वाले कल का
जब शहंशाह की मोटी गर्दन पर कसा जाएगा
लोकतंत्र का फंदा

एक ऐसे दौर में
जब शहंशाह के मौन इशारों पर
लोग बनाए जाते रहेंगें बागी
यों ही कांपती रहेगी सरकार
एक अदने आदमी के भय से

चंदन राय

सोमवार, 22 जून 2009

साहित्यकार पत्रकार

मेरा एक दोस्त
साहित्यकार पत्रकार
तन के लिए पत्रकारिता
मन की भूख मिटाने के लिए
अपनी कल्पना को
कागज पर उतारता है
और मै पत्रकार
सिर्फ़ पत्रकार
ऐसा मानता हूँ
दूसरों का पता नहीं
वो कहानियां लिखता है
पुरस्कार पाता है
लिखता मै भी हूँ
कभी स्क्रिप्ट
कभी स्टोरी
बदले में पुरस्कार तो नहीं मिलता
लेकिन कुछ पैसा मिला जाता हैं
तन के लिए
उसे गुलज़ार से ले कर यादव तक
जानते हैं
मै खुद को खोज रहा हूँ
जानने के लिए
पहचानने के लिए
मन की भूख मिटाने के लिए

शशि शेखर
shekhar2k89@yahoo.com

शुक्रवार, 19 जून 2009

बेकार पत्रकार

एक पत्रकार , दूसरा बेकार
दोनों में कोई अंतर नहीं
फर्क है तो बस सोच का
सोच चिंता की,
चाहत की,
एक को खोने की चिंता,
दूसरे को पाने की,
लेकिन दूसरे को पता नहीं
अगर उसे मिल भी गया
तो एक दिन खोएगा
और अगर फ़िर भी मिल गया तो
फ़िर दूसरा
बन जाएगा पत्रकार
और पहला बेकार।

शशि शेखर
(एक पत्रकार पहली बार कवियाया है)

समय कोई कुत्ता नहीं

फ्रंटियर न सही, ट्रिब्यून पढ़ें
कलकत्ता नहीं ढ़ाका की बात करें
आर्गेनेइजर और पंजाब केसरी की कतरने लाएँ
मुझे बताएँ
ये चीलें किधर जा रहीं हैं?
समय कोई कुत्ता नहीं
जंजीर में बाँध जहाँ चाहे खींच लें
आप कहते हैं
माओ यह कहता है, वह कहता है
मैं कहता हूँ कि माओ कौन होता है कहने वाला?
शब्द बंधक नहीं हैं
समय खुद बात करता है
पल गूंगे नहीं हैं

आप बैठें रैबल में, या
रेहड़ी से चाय पियें
सच बोलें या झूठ
कोई फरक नहीं पड़ता है
चाहे चुप की लाश भी फलाँग लें

हे हुकूमत!
अपनी पुलीस से पूछ कर बता
सींकचों के भीतर मैं कैद हूँ
या फिर सींकचों के बाहर यह सिपाही?
सच ए॰ आई॰ आर॰ की रखैल नहीं
समय कोई कुत्ता नहीं

पाश

भूख

गेहूँ की पौध में टपकती हुई लार
लटे हुए हाथ की
आज की बालीयों के सेहत पूछती है।

कोई नारा नहीं, न कोई सीख
सांत्वना के बाहर एक दौड़ती जरूरत
चाकू की तलाश में मुट्ठियाँ खोलती है फैली हुई
हथेली पर रख देती है...
एक छापामार संकेत
सफ़र रात में तै करना है।

आततायी की नींद
एतवार का माहौल बना रही है
लोहे की जीभ : उचारती है
कवीता के मुहावरे
ओ आग! ओ प्रतिकार की यातना!!
एक फूल की कीमत
हज़ारों सीस्कीयों ने चुकाई है।

भूख की दर्शक-दीर्घा से कूदकर
मरी हुई आँतों का शोर
अकाल की पर्चियाँ फेंकता है।

आ मेरे साथ, आ मेरे साथ आ!
हड़ताल का रास्ता हथियार के रास्ते से
जुड़ गया है।
पीता की पसलियों से
माँ की आँखों से गुज़र
भाई के जबड़े से होती हुई मेरे बेटे की तनी हुई
मुट्ठी में आ! उतर! आ!
ओ आटे की शीशा!
चावल की सिटकी!
गाड़ी की अदृश्य तक बीछी हुई रेल
कोशीश की हर मुहीम पर
मैं तुम्हें खोलूँगा फिश-प्लेट की तरह
बम की तरह दे मारूँगा तेरे ही राज पर
बीन कर फेंक दूँगा
मेहनतकश की पसलीयों पर
तेरा उभार बदलाव को साबीत करता है
जैसे झोंपड़ी के बाहर
नारंगी के सूखे छीलके बताते हैं :
अंदर एक मरीज़ अब
स्वस्थ हो रहा है
ओ क्रांती की मुँहबोली बहन!

धूमिल

प्रजातंत्र

ना कहीं प्रजा है
ना कोई तंत्र है
ये आदमी का आदमी के खिलाफ
खुला षडयंत्र है

धूमिल

मौसम बदलने लगा है

फिर धीरे-धीरे यहाँ का मौसम बदलने लगा है ,
वातावरण सो रहा था अब आँख मलने लगा है ।


पिछले सफ़र की न पूछो , टूटा हुआ एक रथ है ,
जो रुक गया था कहीं पर , फिर साथ चलने लगा है ।


हमको पता भी नहीं था , वो आग ठंडी पड़ी थी ,
जिस आग पर आज पानी सहसा उबलने लगा है ।


जो आदमी मर चुके थे , मौजूद हैं इस सभा में ,
हर एक सच कल्पना से आगे निकलने लगा है ।


ये घोषणा हो चुकी है , मेला लगेगा यहाँ पर ,
हर आदमी घर पहुँचकर , कपड़े बदलने लगा है ।


बातें बहुत हो रही हैं,मेरे-तुम्हारे विषय में ,
जो रास्ते में खड़ा था पर्वत पिघलने लगा है ।

दुष्यन्त कुमार

एक ग़ज़ल

तंग गलियों से निकलकर, आसमान की बात कर
राम को मान और रहमान की भी बात कर

अपने बारे में हमेशा सोचना है ठीक पर
चंद लम्‍हों के लिए, आवाम की भी बात कर

बहारों के मौसम सभी को रास आते हैं मगर
सदियों से सूने पडे़, बियाबान की भी बात कर

तरक्कियां सबके लिए होती नहीं हैं एक-सी
अंतिम सीढ़ी पर खड़े, इंसान की भी बात कर

सिमट गई दुनिया लगती है, शहरों के ही इर्द-गिर्द
गावों में बसने वाले, हिन्‍दुस्‍तान की भी बात कर

टाटा-बिरला-अंबानियों के, कहो किस्‍से खूब पर
आत्‍महत्‍या कर रहे, किसान की भी बात कर

ख्‍वाब अपने कर सभी पूरे मगर
जिन्‍दा रहने के किसी अरमान की भी बात कर

भागीरथ

जमाना बदल गया है

लोग कहते हैं जमाना बदल गया है
रहा करते थे जहां वो आशियाना बदल गया है

तोडकर सीमाएं जग की प्रेम अब स्‍वछंद हुआ
मूक बनकर देखता हूं, अंदाज पुराना बदल गया है

बर्बाद कर दे भला, तूफान किसी का घर बार
तूफां में उजडे घर को, फिर से बसाना बदल गया है

लौट जा रे तू मुसाफिर वापस अपनी राहों में
आजकल इस शहर में, रस्‍ता बताना बदल गया है

मेरे सुख में हंसता था, मेरे दुख में रोता था
एहसास मुझे अब होता है, बेदर्द जमाना बदल गया है

भागीरथ

वो बात

बची रह गई
हर बार
वो बात,
जो थी जरूरी
तमाम बातों की
परतों में दबी
इन्तेज़ार करती रही
अपनी बारी का
बेमतलब था जो
कहा गया बहुत बार
बेवजह के किस्से
दुनियादारी की बातें
चलती रहीं
अबाध- निरंतर
जरूरी था जो
पड़ा रहा
धुल में लिपटा
एक कोने में
झटपटाता रहा
व्यक्त हो जाने को
और जब वो व्यक्त हुआ
कोई रहा न
सुननेवाला॥

भागीरथ

शुक्रवार, 5 जून 2009

कैसे हैं आप?

अजय यादव
जब भी कोई कहता है
'सुनो आदमी'
समझ में आता है
कि अपने भीतर के
जंगल और जानवर को मारो,
जब भी कोई कहता है
'बनो आदमी'
समझ में आता है
कि मेरे भीतर
कितना बचा है
जंगल और जानवर?
लेकिन
एक फर्क है
आदमी और जानवर में
जानवर,
भविष्य की योजनाएं तो बनाता है
लेकिन नहीं रख सकता यादों में
किसी को सहेजकर
और मैं,
उल्टे पांव चलती इस दुनियां में
जो मुझे अच्छा लगा
उसे भूलना नहीं चाहता......
बताइएं,
कैसे हैं आप?