शुक्रवार, 19 जून 2009

मौसम बदलने लगा है

फिर धीरे-धीरे यहाँ का मौसम बदलने लगा है ,
वातावरण सो रहा था अब आँख मलने लगा है ।


पिछले सफ़र की न पूछो , टूटा हुआ एक रथ है ,
जो रुक गया था कहीं पर , फिर साथ चलने लगा है ।


हमको पता भी नहीं था , वो आग ठंडी पड़ी थी ,
जिस आग पर आज पानी सहसा उबलने लगा है ।


जो आदमी मर चुके थे , मौजूद हैं इस सभा में ,
हर एक सच कल्पना से आगे निकलने लगा है ।


ये घोषणा हो चुकी है , मेला लगेगा यहाँ पर ,
हर आदमी घर पहुँचकर , कपड़े बदलने लगा है ।


बातें बहुत हो रही हैं,मेरे-तुम्हारे विषय में ,
जो रास्ते में खड़ा था पर्वत पिघलने लगा है ।

दुष्यन्त कुमार

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें