शुक्रवार, 19 जून 2009

भूख

गेहूँ की पौध में टपकती हुई लार
लटे हुए हाथ की
आज की बालीयों के सेहत पूछती है।

कोई नारा नहीं, न कोई सीख
सांत्वना के बाहर एक दौड़ती जरूरत
चाकू की तलाश में मुट्ठियाँ खोलती है फैली हुई
हथेली पर रख देती है...
एक छापामार संकेत
सफ़र रात में तै करना है।

आततायी की नींद
एतवार का माहौल बना रही है
लोहे की जीभ : उचारती है
कवीता के मुहावरे
ओ आग! ओ प्रतिकार की यातना!!
एक फूल की कीमत
हज़ारों सीस्कीयों ने चुकाई है।

भूख की दर्शक-दीर्घा से कूदकर
मरी हुई आँतों का शोर
अकाल की पर्चियाँ फेंकता है।

आ मेरे साथ, आ मेरे साथ आ!
हड़ताल का रास्ता हथियार के रास्ते से
जुड़ गया है।
पीता की पसलियों से
माँ की आँखों से गुज़र
भाई के जबड़े से होती हुई मेरे बेटे की तनी हुई
मुट्ठी में आ! उतर! आ!
ओ आटे की शीशा!
चावल की सिटकी!
गाड़ी की अदृश्य तक बीछी हुई रेल
कोशीश की हर मुहीम पर
मैं तुम्हें खोलूँगा फिश-प्लेट की तरह
बम की तरह दे मारूँगा तेरे ही राज पर
बीन कर फेंक दूँगा
मेहनतकश की पसलीयों पर
तेरा उभार बदलाव को साबीत करता है
जैसे झोंपड़ी के बाहर
नारंगी के सूखे छीलके बताते हैं :
अंदर एक मरीज़ अब
स्वस्थ हो रहा है
ओ क्रांती की मुँहबोली बहन!

धूमिल

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