शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

आग


आग का पेट बड़ा है!
आग को चाहिए हर लहजा चबाने के लिए
खुश्क करारे पत्ते,
आग कर लेती है तिनकों से गुजारा लेकिन
आशियानों को निगलती है निवालों की तरह
आग को सब्ज हरी टहनियां अच्छी नहीं लगतीं
ढूंढती है कि कहीं सूखे हुए जिस्म मिलें!
उसको जंगल की हवा रास आती है फिर भी
अब गरीबों की कई बस्तियों पर देखा है हमला करते,
आग अब मंदिरों-मस्जिद की गजा खाती है!
लोगों के हाथों में अब आग नहीं-
आग के हाथों में कुछ लोग हैं अब

गुलजार

शनिवार, 19 दिसंबर 2009

क्या हम आजाद हैं?

वक्त ऐसा आ गया है
आलम ऐसा छा गया है
झाँक कर अपने गिरेबान में

आओ ख़ुद से पूछ लें
क्या हम आजाद हैं?

क्या है जिंदगी में अमन चैन?
क्यूँ दो शाम की रोटी के लिए तरसे नैन?
क्या अपना हक मिलता है यहाँ?
लोकतंत्र चलता है जहाँ?

आओ ख़ुद से पूछ लें
क्या हम आजाद हैं?

भुखमरी बेरोज़गारी और अन्याय से क्या अछूते हैं हम?
क्या ठोस कदम उठाये सरकार ने जिससे हो हमारी परेशानी कम?
काम होता है यहाँ और योजनायें बनती भी हैं
पर क्या कभी सोचा है वो क्यूँ लागू होती नहीं?

आओ ख़ुद से पूछ लें
क्या हम आजाद हैं?

क्यूँ वो सुनकर भी हमारी बात करते अनसुनी?
क्यूँ हमारा दर्द उनको दर्द देता है नहीं?
क्यूँ हमारे आसुओं का होता कोई असर नहीं?

आओ ख़ुद से पूछ लें
क्या हम आजाद हैं?

वक्त ऐसा आ गया है
आलम ऐसा छा गया है
झाँक कर अपने गिरेबान में

आओ ख़ुद से पूछ लें
क्या हम आजाद हैं?

हर एक इंसान में है ज़ोर कर लो गौर
अब करे न राज हमपे कोई और
अपने हाथों में ले लो सत्ता की डोर

और हर तरफ़ हो यही शोर
"हाँ हम आजाद हैं.....हाँ हम आजाद हैं...."

गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

लोकेशन

























अभी कल तलक
कहते थे-
नहीं होने देंगे अन्याय
लडेंगे अत्याचारी से
झोपड़ी और गगन चूमती
एसीदार इमारतों के बीच
कर देंगे खत्म फासला
आज वह भी,
उन्हीं लोगों की जमात में
हो गए हैं शामिल
सबसे आगे चल रहे हैं उठाकर
उनका झंड़ा
उसी एसीदार इमारत पर
ले लिया है फ्लैट
बालकनी में खडे़ होकर
देखता है झोपड़ी की तरफ
जहां से उठकर आया है
अब खटक रही है उसे
अपने बगल में
उस झोपड़ी की लोकेशन।

भागीरथ




आकस्मिक मुलाकात


हम मिले-
बड़े सलीके और शिष्टाचार के साथ।
हमने कहा- कितनी खुशी हुई
आपको इतने सालों बाद देखकर !
पर हमारे भीतर थककर सो गया था बहुत-कुछ।
घास खा रहा था शेर,
बाज ने अपनी उड़ान छोड़ दी थी।
मछलियाँ डूब गई थीं और भेड़िए पिंजरों में बन्द थे।
हमारे साँप अपनी केंचुल बदल चुके थे।
मोरों के पंख झड़ गए थे।
उल्लू तक नहीं उड़ते थे हमारी रातों में।
हमारे वाक्य टूट कर ख़ामोश हो गए।
असहाय-सी मुस्कान में खो गयी
हमारी इंसानियत
जो नहीं जानती कि आगे क्या कहे
विस्साव शिम्बोर्स्का
(बीतती सदी में )
अनुवाद - विजय अहलूवालिया

घुटनों के बल निहार रहा हूँ धरती को

इंसानों के बीच प्यार करता हूँ इंसानियत को
मुझे भाती है सक्रियता
मुझे रुचते हैं विचार
प्यार करता हूँ मैं अपने संघर्षो को
मेरे संघर्षो के बीच इंसान हो तुम मेरी प्रिया
मैं तुम्हे प्यार करता हूँ!
नाज़िम हिक़मत

बुधवार, 16 दिसंबर 2009

आदत

अब नहीं वो गुस्सा करते
भाड़ा बढ़ने पर बस का
आटा-दाल-चीनी-सब्जी
महंगी होने पर
नहीं शिकन आती माथे पर
अब वो आदत डाल रहे हैं
पैदल चलने की
हवा खाकर जिंदा
रहने की..

बुधवार, 9 दिसंबर 2009

कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की

कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की

बहुत खूबसूरत मगर सांवली सी

मुझे अपने ख़्वाबों की बाहों में पाकर

कभी नींद में मुस्कुराती तो होगी

उसी नींद में कसमसा कसमसाकर

सराहने से तकिये गिराती तो होगी

वही ख्वाब दिन के मुंडेरों पे आके
उसे मन ही मन में लुभाते तो होंगे
कई साज़ सीने की खामोशियों में
मेरी याद में झनझनाते तो होंगे
वो बेसाख्ता धीमे धीमे सुरों में
मेरी धुन में कुछ गुनगुनाती तो होगी
चलो ख़त लिखें जी में आता तो होगा
मगर उंगलियाँ कंप-कंपाती तो होंगी
कलम हाथ से छूट जाता तो होगा
उमंगें कलम फिर उठाती तो होंगी

मेरा नाम अपनी किताबों पे लिखकर
वो दांतों में उंगली दबाती तो होगी
जुबां से कभी उफ़ निकलती तो होगी
बदन धीमे धीमे सुलगता तो होगा
कहीं के कहीं पाँव पड़ते तो होंगे
दुपट्टा ज़मीन पर लटकता तो होगा
कभी सुबह को शाम कहती तो होगी
कभी रात को दिन बताती तो होगी

कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की
बहुत खूबसूरत मगर सांवली सी

रविवार, 6 दिसंबर 2009

कश लगा

ज़िन्दगी ऐ कश लगा
हसरतों की राख़ उड़ा

ये जहान फ़ानी है, बुलबुला है, पानी है
बुलबुलों पे रुकना क्या, पानियों पे बहता जा बहता जा
कश लगा, कश लगा

जलती है तनहाईयाँ तापी हैं रात रात जाग जाग के
उड़ती हैं चिंगारियाँ, गुच्छे हैं लाल लाल गीली आग के

खिलती है जैसे जलते जुगनू हों बेरियों में
आँखें लगी हो जैसे उपलों की ढेरियों में

दो दिन का आग है ये, सारे जहाँ का धुंआँ
दो दिन की ज़िन्दगी में, दोनो जहाँ का धुआँ
कश लगा, कश लगा

इश्तहार

इसे पढ़ो
इसे पढ़ने में कोई डर या ख़तरा नहीं है
यह तो एक सरकारी इश्तहार है
और आजकल सरकारी इश्तहार
दीवार पर चिपका कोई देवता या अवतार है
इसे पूजो !
इसमें कुछ संदेश हैं
सूचनाएँ हैं
कुछ आँकड़े हैं
योजनाएँ हैं
कुछ वायदे हैं
घोषणाएँ हैं
इस देववाणी को पढ़ो
और दूसरों को पढ़कर सुनाओ—
कि देश कितनी तरक्की कर रहा है
कि दुनिया में हमारा रुतबा बढ़ रहा है
चीज़ों की कीमतें गिर रही हैं
और हमें विश्व बैंक से नया क़र्ज़ा मिल रहा है
इस क़र्ज़ से कई कारखाने लगाए जाएंगे
कारखानों से कई धंधे चलाए जाएंगे
उन धंधों से लाखों का लाभ होगा
उस लाभ से और कारख़ाने लगाए जाएंगे
उन कारख़ानों से और उद्योग चलाए जाएंगे
उस लाभ से और कारख़ाने लगाए जाएंगे
इस तरह लाभ—दर—लाभ के बाद
जो शुभ लाभ होगा
उससे ग़रीबों के लिए घर बनाए जाएगे
उन पर उन्हीं की शान के झंडे लहराए जाएंगे
सभी ग़रीब एक आवाज़ से बोलें—
‘जय हिंद !’
ये हिंद साहब !
मगर इस देश का ग़रीब आदमी भी अजब तमाशा है
अपनी ही शान का इश्तहार पढ़ने से डरता है
और निरंतर निरक्षर होने का नाटक करता है
हाँ साहब, मैं ठीक कहता हूँ
अगर देश को ठीक दिशा में मोड़ना है तो
ग़रीब आदमी की इस नाटकीय मुद्रा को तोड़ना है
हमें उसे ज़बर्दस्ती इस दीवार के पास लाना है
और इस इश्तहार को पढ़वाना है।

कविता आदमी का निजी मामला नहीं है

कविता आदमी का निजी मामला नहीं है

एक दूसरे तक पहुंचने का पुल है
अब वही आदमी पुल बनाएगा जो पुल पर चलते आदमी की

सुरक्षा कर सकेगा।