शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

छापक पेड़ छिउलिया

छापक पेड़ छिउलिया त पतवन धनवन हो
तेहि तर ठाढ़ हिरिनिया त मन अति अनमन हो।।

चरतहिं चरत हरिनवा त हरिनी से पूछेले हो
हरिनी ! की तोर चरहा झुरान कि पानी बिनु मुरझेलु हो।।

नाहीं मोर चरहा झुरान ना पानी बिनु मुरझींले हो
हरिना ! आजु राजा के छठिहार तोहे मारि डरिहें हो।।

मचियहिं बइठल कोसिला रानी, हरिनी अरज करे हो
रानी ! मसुआ त सींझेला रसोइया खलरिया हमें दिहितू नू हो।।

पेड़वा से टाँगबो खलरिया त मनवा समुझाइबि हो
रानी ! हिरी-फिरी देखबि खलरिया जनुक हरिना जियतहिं हो

जाहु हरिनी घर अपना, खलरिया ना देइब हो
हरिनी ! खलरी के खँजड़ी मढ़ाइबि राम मोरा खेलिहेनू हो।।

जब-जब बाजेला खँजड़िया सबद सुनि अहँकेली हो
हरिनी ठाढि ढेकुलिया के नीचे हरिन के बिजूरेली हो।।

विद्यानिवास मिश्र द्वारा सम्पादित कृति "वाचिक कविता भोजपुरी" से साभार
(यह बहुत ही मशहूर सोहर है, हरिणी से हरिण एक प्रश्न पूछता है की वह उदास क्यों हैं। हरिणी उत्तर दे रही है कि आज कोसल नरेश के यहाँ छठीहार है और हरिण को छट्ठी के लिए मार डाला जाएगा। बाद में हरिणी और कौसल्या का संवाद है जहाँ हरिणी रानी से हरिण की खाल मांगती है जिससे वह उसे याद के रूप में अपने पास रख सके लेकिन कौसल्या ने यह कहते हुए की उसकी खाल से खंजड़ी बनाई जायेगी जिससे उनका लाल राम उससे खेल सके हरिणी को निराश होकर लौटना पड़ा। और जब-जब खंजड़ी बजती है हरिणी के मन में टीस उठती है)

वाह ! बनारस

छूटा दगा दुमकटा साँड़
सींग रहित कनफटा सांड़
मंदिर, गली सड़क घाटों पर
दो चार गऊ संग डटा साँड़
भिड़ पड़े खोंमचा उधर गिरा
हुरपेटा कोई इधर गिरा
ढुर छें ढुर छें में पता नहीं
कब कौन आदमी किधर गिरा
कुछ ने मोटे को पुचकारा
कुछ ने दुबले को लरकारा
फिर क्या था साँड़ों के पीछे
हो गयी वहीं मारी मारा
एकदम बरबस
वाह ! बनारस

बैठे साव पुरोहित पंडा
ले ले छड़ी अंगोछा डंडा
‘बोल दे रजा राम’ चले पट्ठे
गहरेबाज पटनहा मुण्डा
इक्के राजघाट पुल आये
घोड़ों ने डैने फैलाये
मची करारी गहरेबाजी
भिड़ल रहे बस जाय न पाये
लऽरंगभंग पड़ गयल खलल
कुछ चित्त गिरे, कुछ मुँह के बल
फिर भी मुँह से था निकल रहा
बस खबरदार ! सब रहे हटल
अद्भुत साहस
वाह ! बनारस।

विश्वंभरनाथ त्रिपाठी की रचना "आज भी वही बनारस है" से साभार

पुरुष-सूक्त : अँधेरे की ऋचा

वह एक समय था।
मैं पहाड़ों से चाँदनी की तरह उतरा करती थी
और मैंदानों में नदी की तरह फैल जाती थी
मेरे अन्दर हिम-संस्कृति की गरिमा थी
और हरे दृश्यों की पवित्रता।

मैं प्रेम करना चाहती थी
और रास्ते के
उस किसी भी पेड़, टेकरी या पहाड़ को
गिरा देना चाहती थी
जो मेरी रुकावट बनता था।
वह पेड़ भाई हो सकता था
वह टेकरी बहिन
और वह पहाड़ पिता हो सकता था।

मैं उन्हें याद करती हूँ
व्यक्तिगत अंक से कटे हुए शून्यों की तरह-अपने
प्रेमी या प्रेमपात्रों को,
वे एक या दो या तीन या
असंख्य भी हो सकते हैं।
उनके शरीर पर कवच थे
और पैर घुटनों तक जूते में बँधे थे
उनके सिर पर लोहे के टोप थे
और उनकी तलवारें अपशब्दों की तरह थीं—
जिन्हें वे हवा में उछालते हुए चलते थे।

वे अपने और अपनों के हितों के बारे में
आशंकित रहने वाले लोग थे।
जब कभी
उनकी रोटी, शराब या औरत में
कोई चीज़ कम हो जाती थी
तो वे छाती कूट कर रोते थे
वे अपने मरे हुए पुरखों की उन रातों के लिए भी रोते थे
जो उन्होंने घरेलू कलह के दौरान
औरतों के बिना गुज़ारी थीं
और उनके वंशजों के लिए भी
जिनके पास रोटी तो थी
पर जो अभी शराब और औरत नहीं जुटा पाये थे।

वे शामों और समुद्रों की
तटवर्ती आसक्तियों में प्रवृद्ध हुए लोग थे
गुलाबों और रजनीगन्धा की झालरों में
बार-बार मूर्च्छित होने वाले लोग।

दौड़कर आयी हुई नदी के किनारे
उन्होंने अपनी छतरियाँ तानी थीं
ताकि ठण्डी हवा के झोंकों के बीच
अपना घरेलू चन्दन घिस सकें
और मलबा फेंकने के लिए भी
उन्हें दूर न जाना पड़े।

प्रेम उनके लिए
कभी खिड़की से देखा जानेवाला एक सुन्दर भू-दृश्य होता
कभी भागकर छिपने के लिए मिला
एक निभृत स्थान।
वह नहीं था
धरती में रोपा जानेवाला कोई पौधा
या कोई लतर
जिसे श्रम के जल से सींचना ज़रूरी हो।
जब भी हवा या आकाश की बात होती
वे उसे उस क्षण की अपेक्षा से काटकर
किसी सुदूरवर्ती स्वप्न में ले जाते।

वे प्रकृति के निर्जन सन्नाटों में चल रहे
अभियानों की खबरों से भी जी चुराते थे
कि हस्तगत प्रेमिका की तरफ़ से, जीवन में
किसी भी साहसिक चेतावनी के ख़तरे को
आख़िर तक टाला जा सके।

वे एक ही सम्प्रदाय के लोग थे।
उनकी बातों और आदतों को शायद कहीं अलग किया जा सके
पर उनका स्मृति-प्रभाव
बिना किसी आश्चर्य के एक जैसा है।

वे आज भी ज़िन्दा हैं
सबके भविष्य को
अपने वर्तमान में निचोड़नेवाले लोग
बहते हुए रक्त की यन्त्रणापूर्ण रोशनी से
अपनी नावें सजानेवाले लोग।

वे हमेशा ज़िन्दा रहते हैं।

उन्होंने मुट्ठी भर रेत को रेगिस्तान कहा था
और कच्चे-से काँटे को सूली की संज्ञा दी थी।

मैंने विश्वास की पवित्र शिला पर खड़े होकर
अपने जीवन की आग पर पानी डाला था 

अमृता भारती की पुस्तक "सन्नाटे में दूर तक" से साभार

कैलाश गौतम की "कविता लौट पड़ी"

उतरे नहीं ताल पर पंछी

उतरे नहीं ताल पर पंछी
बादल नहीं घिरे
हम बंजारे
मारे-मारे
दिन भर आज फिरे।

गीत न फूटा
हँसी न लौटी
सब कुछ मौन रहा,
पगडन्डी पर आगे-आगे
जाने कौन रहा
हवा न डोली
छाँह न बोली
ऐसे मोड़ मिले।

आर-पार का न्योता देकर
मौसम चला गया
हिरन अभागा उसी रेत में
फिर-फिर छला गया
प्यासे ही रह गये
हमारे
पाटल नहीं खिले।

मन दो टूक हुआ है
सपने
चकनाचूर हुए
जितनी दूर नहीं सोचे थे
उतनी दूर हुए
रात गये
आँगन में सौ-सौ
तारे टूट गिरे।

बारिश में घर लौटा कोई

बारिश में घर लौटा कोई
दर्पण देख रहा
न्यूटन जैसे पृथ्वी का
आकर्षण देख रहा।
धान-पान सी आदमकद
हरियाली लिपटी है,
हाथों में हल्दी पैरों में
लाली लिपटी है
भीतर ही भीतर कितना
परिवर्तन देख रहा।

गीत-हँसी-संकोच-शील सब
मिले विरासत में
जो कुछ है इस घर में सब कुछ
प्रस्तुत स्वागत में
कितना मीठा है मौसम का
बंधन देख रहा।

नाच रही है दिन की छुवन
अभी भी आँखों में,
फूलझरी सी छूट रही है
वही पटाखों में
लगता जैसे मुड़-मुड़ कोई
हर क्षण देख रहा।

दिन भर चाह रही होठों पर,
दिन भर प्यास रही
रेशम जैसी धूप रही
मखमल सी घास रही
आँख मूँदकर
सुख
सर्वस्व समर्पण देख रहा।

लोकभारती प्रकाशन के "कविता लौट पड़ी" संग्रह से

रविवार, 7 फ़रवरी 2010

नया वर्ष




इक
महती उपलब्धि
उस चीज की
जो स्वयं गतिवान है !
इक गहरी उतेजना
उसके आने की
जिसको आना ही है !

ये समय नहीं है -
अपने पीछे देखने का ,
न ही आगे आनेवाले
ढकोसलों को मापने का
ये समय है -
एन्जोए करने का !

हर उस तेज़ चीज़ को
हम हड़प कर जायेंगे
हर पानी हमारे लिए
एक खास शराब है ,
वो जो भी खारा है
हमें प्यारा है !

शव के सिरहाने रखी
ज़िन्दगी -
धीरे - धीरे सुलगती हुई बाती है
औ' सारे के सारे रंगों का
अबूझ कफ़न ओढे है !

नहीं , ये समय नहीं है
न ही उसकी आहट ,
जिसको हम माप सके
या की अपनी ही बनाई
खिड़की से छांक सकें !

एक रोकेट तेज़ी से जाता है
कहीं दूर कोई सीटी बजाता है ,
कोई नाचता कोई गाता है !
पूरा का पूरा माहौल
इस ठण्ड में
खिलंदर बन जाता है !

मुझे याद है -
बचपन में ,
हम एक चकरी बनाते थे
पत्तों की
औ' उसे लेकर हवा के विपरीत
तेज़ी से दौड़ते थे
वो घूमती थी
हम खुश होते थे !

वो समय की खूबी थी
या हमारी मेहनत की ,
की चकरी तेज़ी से घूमती थी
मुझे नहीं पता ;
हाँ ! इतना जरुर पता है
इस खेल की रेलमपेल में
सब शामिल हैं !
इस कड़ाके की टंड में
जो आइस्क्रेम खायेगा ,
टीक वही -
"सर्विवल ऑफ दी फिटेस्ट "
बन पायेगा ,
अब कोई भूख से नहीं
कम खाने की इच्छा से
मारा जायेगा !!!


अभिषेक पाण्डेय
०१/०१/२००३
न्यू डेल्ही